डिजिटल होती दुनिया में भी दो किनारे हैं। एक डिजिटल डिवाइड जो हमारे दिल और दिमाग के बीच है। दोनों एक-दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते। दिल डिजिटल होना चाहता है, लेकिन दिमाग उसे मुश्किल कहकर खारिज कर देता है, भले ही डिजिटल रिवॉल्यूशन दरवाजे पर दस्तक देकर लौट जाए। डिजिटल माइंडसेट की बात इंडिया की सिलिकॉन वैली, बंगलुरु के बाहर कहीं नहीं होती। चीजों को आसान बनाने का काम करने वाली टेक्नोलॉजी आज भी ज़्यादातर लोगों को मुश्किल नज़र आती है।
इंदौर में एक चायवाला हुआ करता था। मोबाइल फ़ोन नया-नया आया था। कॉल करने ही नहीं, बल्कि रिसीव करने के भी पैसे देने पड़ते थे। उसे चाय का ऑर्डर लेने के लिए भीड़ भरे व्यस्त बाज़ार में लड़का भेजना पड़ता था। उसे एक आइडिया आया, उसने मोबाइल फ़ोन रखना शुरू किया। चाय का ऑर्डर अब उसके सेकंड हैंड मोबाइल हैंडसेट पर लिया जाता था। उसके कस्टमर अब लगातार उसके टच में रहते थे। उन्हें इस सर्विस के लिए कुछ एक्स्ट्रा खर्च करने से भी परहेज नहीं था। उसका बिज़नेस पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया। वह चायवाला कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के शुरुआती अडॉप्टर्स में से एक था।
कुछ ऐसा ही जीपीएस (ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम) के साथ भी हुआ। केरल के मछुआरों ने किसी और के मुकाबले इस टेक्नोलॉजी को जल्दी अपनाया। इसने समंदर में उनके लिए मछली पकड़ना आसान बना दिया। इंदौर के उस चायवाले और केरल के मछुआरों के बीच एक चीज़ कॉमन है, डिजिटल माइंडसेट। दोनों ने ही टेक्नोलॉजी को शुरुआती दौर में अपनाया और उसका इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों के हिसाब से करने में कामयाब रहे। यह कुछ वैसा ही है जब हर किसी को ग्लास आधा खाली दिख रहा हो, तब भी कुछ लोग आधे भरे ग्लास की ओर देख रहे होते हैं।
अगर कहीं यह डिजिटल डिवाइड सबसे ज़्यादा नज़र आता है तो वह गवर्नेंस में है। हर साल सरकारें डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाती जा रही हैं, लेकिन उसका असर कम ही नज़र आता है। शायद उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि कंप्यूटर और इंटरनेट का कनेक्शन डिजिटल होने के लिए काफी नहीं है, जब तक कि वर्कफोर्स का माइंडसेट डिजिटल नहीं होता। बिजली का बिल जमा करने के लिए लाइन में लगे लोग सॉल्यूशन चाहते हैं, बजाए यह सुनने के कि सर्वर डाउन है। ई-गवर्नेंस को सबसे नज़दीक से समझने का मौका उन्हें वहीं मिलता है। टेक्नोलॉजी का काम चीजों को आसान बनाना है, इस बात का अहसास लगातार होते रहना चाहिए।
इंडिया में 137 मिलियन इंटरनेट यूज़र्स हैं। उनमें से भी सिर्फ़ 2.8 परसेंट को 4 एमबीपीएस या उससे ज़्यादा की स्पीड नसीब है। उस पर 89 परसेंट का काम 256 केबीपीएस वाली स्पीड से चलता है। यहाँ बड़ी बात यह नहीं कि वह 89 परसेंट किस स्पीड पर इंटरनेट का यूज़ कर रहे हैं, बल्कि यह है कि उस स्पीड पर भी वह डिजिटली कनेक्टेड रहना चाहते हैं। लोग ही हैं जो माइंडसेट वाले डिजिटल डिवाइड के पार खड़े लोगों को हाथ पकड़कर इस पार लेकर आएँगे। इंडिया में 2017 तक इंटरनेट यूज़र्स की तादाद तीन गुना होने वाली है।
इस साल जब रुपए और सेंसेक्स के गिरने और इंडियन इकोनॉमी की ख़राब हालत सुर्खियों में है, एक खबर लोगों की नज़र से चूक गई। साल की शुरुआत में इंडिया जापान को पीछे छोड़कर स्मार्टफोन का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बन गया है, जो हर साल 21 परसेंट की रफ़्तार से बढ़ रहा है। साढ़े तीन इंच के स्क्रीन साइज़ वाले फ़ोन अब इंडियंस को कम पसंद आते हैं, ऐसा इसलिए कि उनमें से ज़्यादातर मोबाइल पर इंटरनेट एक्सेस करना चाहते हैं। बहरहाल, यह याद रखना होगा कि सिर्फ़ डिवाइस ही आपको डिजिटल नहीं बनाती।
इंडिया की सिलिकॉन वैली, बंगलुरु में फिर से इन्फोसिस की कमान संभालने वाले एन आर नारायणमूर्ति, इंदौर के उस चायवाले और केरल के मछुआरों – तीनों के बीच एक ही चीज़ कॉमन है जो उन्हें अनकॉमन बनाती है – डिजिटल माइंडसेट। डिजिटल डिवाइड के इस पार आने का रास्ता वहीं से होकर जाता है।
साभार: आई-नेक्स्ट में दिनांक 31 अगस्त 2013 को प्रकाशित।
http://inextepaper.jagran.com/153915/INext-Kanpur/31.08.13#page/11/1
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