अयोध्या पर बोलने वाले बहुत हैं लेकिन उससे पूछने वाले कम हैं। वह लोगों की भीड़ को आते-जाते देखती रहती है, जब आवाजें शोर बन जाती हैं तब भी। जब वह सुर्खियों में नहीं होती, उसकी गलियों में खामोशी होती है। कभी-कभार उनकी खामोशी भी सुर्खियां बन जाती है। सन्नाटा जिसे देखकर लगेगा कि जैसे वनवास के बाद राम के लौटने का इंतजार है। सुबह सवेरे सरयू के जल में डुबकी लगाकर सिर बाहर निकालता श्रद्धालु या हनुमान गढ़ी पर हाथ से प्रसाद छीनकर भागता बंदर उसकी एक नहीं अनेक छवियां हैं। हमारी पीढ़ी का बड़ा हिस्सा टेलीविजन स्क्रीन पर सिर्फ एक ही देखता आया है। छवि जिसमें वह बंधा हुआ महसूस करने लगी है, जिसे तोड़कर बाहर आने का उसे रास्ता नहीं मिल रहा है। अयोध्या राम की है लेकिन राम सिर्फ अयोध्या के नहीं हो सकते।
यही सोचकर शायद वह आने देती है हुजूम के हुजूम, जिनके आने से सन्नाटा टूटता रहता है। लोगों की भीड़ देख वह कभी उत्साह से भरती रही है, अब आशंका से भर जाती है। उसके अंदर सवाल जन्म लेने लगते हैं। हर बार उसके अंदर उम्मीद भी जगती है कि शायद कोई उसके सवालों का जवाब देता जाएगा और यह सिलसिला थम जाएगा। ऐसा होता नहीं है, सब आते फिर बारी-बारी से अपना सामान समेटकर चलते-बनते हैं, रह जाती है अयोध्या, उन सवालों के साथ। उसका इंतजार लंबा होता चला जाता है। वह धीरज धरकर सुनती रहती है, नेताओं को अभिनेताओं को यह बताते कि देश क्या चाहता है? बताना वह भी चाहती है लेकिन बता नहीं पाती मानो अपनी बारी का इंतजार कर रही है। इंतजार है कि खत्म नहीं होता। यह नगरी अयोध्यावासियों की भी उतनी ही है, बिना प्रजा के राजा नहीं हो सकता।
यह संयोग ही कहेंगे कि राम की ज्यादातर छवियां जो लोकमानस के मन में उतरी हैं उनमें से अधिकतर वनवासी राम की हैं। राम जो अयोध्या से दूर रहकर केवट को गले लगाते, शबरी के जूठे बेर खाते, वानर सेना को युद्ध के लिए तैयार करते, समुद्र पर सेतु बांधते, उत्तर से दक्षिण तक समाज व संस्कृतियों को जोड़ते हैं। बहरहाल राम लौटकर तो अयोध्या ही आते हैं। उसका अपना एक इतिहास है, किवदंतियां हैं रह-रहकर जिनकी याद दिलाई जाती रहती है, उनके बिना भी वह अधूरी है।
बहरहाल इस नगर, जिसके नाम पर अतीत के पन्ने अकसर पलटे जाते हैं के रहने वाले वर्तमान में जीते हैं, उन्हें भी भविष्य की चिंता सताती है। वह हेडलाइन 'अयोध्या में तनाव', 'अयोध्या बना छावनी', 'संगीनों के साये में अयोध्या' सिर्फ पढ़ते नहीं जीते भी हैं। उन पलों को जीना कैसा होता होगा इसकी कल्पना कर पाना भी कठिन है। इसे कोई अयोध्यावासी ही समझ सकता है। पत्रकारों की भीड़ से घिरे स्थानीय निवासी 'आपको कैसा लग रहा है' का जवाब देते समय सेलिब्रिटी वाली फील से नहीं ही गुजर रहे होते। वह तो संशय व असमंजस की 'सरयू' में गोते लगा रहा होता है। हालांकि हम मान लेते हैं कि वह इस प्रक्रिया से इतनी बार गुजरा है कि इसकी आदत पड़ गई होगी।
तब उन्हें यहां की राजकुमारी के कोरिया के राजकुमार से विवाह की किवदंती याद नहीं आती होगी। यह भी नहीं कि उसके नाम का आकर्षण इतना है कि दुनिया के दो देशों में राजाओं ने उसी के नाम पर शहर बसा डाले। थाईलैंड में किसी राजा ने साम्राज्य स्थापित कर नई राजधानी बसाई थी जिसे नाम दिया था 'अयोध्या'। जिसकी गिनती लंबे समय तक पूरब के बड़े व समृद्ध शहरों में होती रही। जहां भारत, चीन, वियतनाम, पुर्तगाल, जापान से लेकर ईरान तक के व्यापारी पहुंचते, बाद में यूरोपीय भी पहुंचे। कहते हैं कि इंडोनेशियाई शहर योगकार्ता को भी उसका नाम अयोध्या से मिला है।
कभी कोशल महाजनपद का हिस्सा रही अयोध्या तो मन ही मन पूछती और बूझती रहती है। वह सिर्फ अतीत के पन्ने नहीं पलटते रहना चाहती, उसे अपने माथे पर चिंता की लकीरें नहीं मुस्कुराते भविष्य व बेहतर वर्तमान की भी दरकार है। कवि कुंवर नारायण की राम को संबोधित करते हुए एक पंक्ति है अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं योद्धाओं की लंका है। जो नगरी नाम से ही अपराजेय है वह कब तक कुरुक्षेत्र बनी रहेगी, यह सवाल उसके मन में भी आता होगा।
तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है, कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा। मंझधार में फंसी इस नगरी व उसके रहने वालों को नैया पार लगने का इंतजार है। तुलसी के राम लोकनायक, कबीर के अगम हैं, कबीर को हर जगह राम नजर आते हैं, बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम। अयोध्या दोनों को ही जीती है।
जिन राम के बारे में कहा जाता है कि वह बंधन मुक्त करते हैं, उनकी अयोध्या ही बंधन में बंध सी गई है। यह बंधन बहुतेरे हैं, समय से लेकर बयानों तक व रेडीमेड छवियों के ऐसे बंधन जिन्हें उसका बस चले तो कब का तोड़ चुकी होती। उसकी पहचान गिनी चुनी तारीखों में सिमट आई है। तारीखें जिन्हें कैलेंडर में देखकर उसे याद कर लिया जाता है। कैलेंडर जिसमें तारीखें घटती-बढ़ती रहती हैं। कुछ परमानेंट भी हो गई हैं। किसी को दिखे न दिखे यह बंधन अयोध्यावासियों को जरूर नजर आते हैं। इसलिए क्योंकि जब भी कोई नया कारवां आता है तो बंधन में अपने आपको वही है। किसी की निेगाह पड़े न पड़े वह इस अहसास से गुजर जाता है। इस नगरी ने कितनी ही छवियों को बनते बिगड़ते देखा है। कितनी उसका नाम लेकर बनी बिगड़ी हैं। उसकी निगाह से कुछ छिपा नहीं है। वह संशय से लेकर असमंजस के बीच झूली है, तनाव, छावनी व संगीनों जैसे शब्दों से उसका पाला पड़ता आया है। बंधन टूटेंगे लोग उससे पूछेंगे अयोध्या को इसका इंतजार था और अभी भी है। उसको ही नहीं उसके जन-जन को जिनके बिना वह पूरी नहीं है।
यही सोचकर शायद वह आने देती है हुजूम के हुजूम, जिनके आने से सन्नाटा टूटता रहता है। लोगों की भीड़ देख वह कभी उत्साह से भरती रही है, अब आशंका से भर जाती है। उसके अंदर सवाल जन्म लेने लगते हैं। हर बार उसके अंदर उम्मीद भी जगती है कि शायद कोई उसके सवालों का जवाब देता जाएगा और यह सिलसिला थम जाएगा। ऐसा होता नहीं है, सब आते फिर बारी-बारी से अपना सामान समेटकर चलते-बनते हैं, रह जाती है अयोध्या, उन सवालों के साथ। उसका इंतजार लंबा होता चला जाता है। वह धीरज धरकर सुनती रहती है, नेताओं को अभिनेताओं को यह बताते कि देश क्या चाहता है? बताना वह भी चाहती है लेकिन बता नहीं पाती मानो अपनी बारी का इंतजार कर रही है। इंतजार है कि खत्म नहीं होता। यह नगरी अयोध्यावासियों की भी उतनी ही है, बिना प्रजा के राजा नहीं हो सकता।
यह संयोग ही कहेंगे कि राम की ज्यादातर छवियां जो लोकमानस के मन में उतरी हैं उनमें से अधिकतर वनवासी राम की हैं। राम जो अयोध्या से दूर रहकर केवट को गले लगाते, शबरी के जूठे बेर खाते, वानर सेना को युद्ध के लिए तैयार करते, समुद्र पर सेतु बांधते, उत्तर से दक्षिण तक समाज व संस्कृतियों को जोड़ते हैं। बहरहाल राम लौटकर तो अयोध्या ही आते हैं। उसका अपना एक इतिहास है, किवदंतियां हैं रह-रहकर जिनकी याद दिलाई जाती रहती है, उनके बिना भी वह अधूरी है।
बहरहाल इस नगर, जिसके नाम पर अतीत के पन्ने अकसर पलटे जाते हैं के रहने वाले वर्तमान में जीते हैं, उन्हें भी भविष्य की चिंता सताती है। वह हेडलाइन 'अयोध्या में तनाव', 'अयोध्या बना छावनी', 'संगीनों के साये में अयोध्या' सिर्फ पढ़ते नहीं जीते भी हैं। उन पलों को जीना कैसा होता होगा इसकी कल्पना कर पाना भी कठिन है। इसे कोई अयोध्यावासी ही समझ सकता है। पत्रकारों की भीड़ से घिरे स्थानीय निवासी 'आपको कैसा लग रहा है' का जवाब देते समय सेलिब्रिटी वाली फील से नहीं ही गुजर रहे होते। वह तो संशय व असमंजस की 'सरयू' में गोते लगा रहा होता है। हालांकि हम मान लेते हैं कि वह इस प्रक्रिया से इतनी बार गुजरा है कि इसकी आदत पड़ गई होगी।
तब उन्हें यहां की राजकुमारी के कोरिया के राजकुमार से विवाह की किवदंती याद नहीं आती होगी। यह भी नहीं कि उसके नाम का आकर्षण इतना है कि दुनिया के दो देशों में राजाओं ने उसी के नाम पर शहर बसा डाले। थाईलैंड में किसी राजा ने साम्राज्य स्थापित कर नई राजधानी बसाई थी जिसे नाम दिया था 'अयोध्या'। जिसकी गिनती लंबे समय तक पूरब के बड़े व समृद्ध शहरों में होती रही। जहां भारत, चीन, वियतनाम, पुर्तगाल, जापान से लेकर ईरान तक के व्यापारी पहुंचते, बाद में यूरोपीय भी पहुंचे। कहते हैं कि इंडोनेशियाई शहर योगकार्ता को भी उसका नाम अयोध्या से मिला है।
कभी कोशल महाजनपद का हिस्सा रही अयोध्या तो मन ही मन पूछती और बूझती रहती है। वह सिर्फ अतीत के पन्ने नहीं पलटते रहना चाहती, उसे अपने माथे पर चिंता की लकीरें नहीं मुस्कुराते भविष्य व बेहतर वर्तमान की भी दरकार है। कवि कुंवर नारायण की राम को संबोधित करते हुए एक पंक्ति है अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं योद्धाओं की लंका है। जो नगरी नाम से ही अपराजेय है वह कब तक कुरुक्षेत्र बनी रहेगी, यह सवाल उसके मन में भी आता होगा।
तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है, कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा। मंझधार में फंसी इस नगरी व उसके रहने वालों को नैया पार लगने का इंतजार है। तुलसी के राम लोकनायक, कबीर के अगम हैं, कबीर को हर जगह राम नजर आते हैं, बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम। अयोध्या दोनों को ही जीती है।
जिन राम के बारे में कहा जाता है कि वह बंधन मुक्त करते हैं, उनकी अयोध्या ही बंधन में बंध सी गई है। यह बंधन बहुतेरे हैं, समय से लेकर बयानों तक व रेडीमेड छवियों के ऐसे बंधन जिन्हें उसका बस चले तो कब का तोड़ चुकी होती। उसकी पहचान गिनी चुनी तारीखों में सिमट आई है। तारीखें जिन्हें कैलेंडर में देखकर उसे याद कर लिया जाता है। कैलेंडर जिसमें तारीखें घटती-बढ़ती रहती हैं। कुछ परमानेंट भी हो गई हैं। किसी को दिखे न दिखे यह बंधन अयोध्यावासियों को जरूर नजर आते हैं। इसलिए क्योंकि जब भी कोई नया कारवां आता है तो बंधन में अपने आपको वही है। किसी की निेगाह पड़े न पड़े वह इस अहसास से गुजर जाता है। इस नगरी ने कितनी ही छवियों को बनते बिगड़ते देखा है। कितनी उसका नाम लेकर बनी बिगड़ी हैं। उसकी निगाह से कुछ छिपा नहीं है। वह संशय से लेकर असमंजस के बीच झूली है, तनाव, छावनी व संगीनों जैसे शब्दों से उसका पाला पड़ता आया है। बंधन टूटेंगे लोग उससे पूछेंगे अयोध्या को इसका इंतजार था और अभी भी है। उसको ही नहीं उसके जन-जन को जिनके बिना वह पूरी नहीं है।
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