भारत के दक्षिण में विंध्य के पार कर्नाटक में जारी सियासी महाभारत के कई अध्याय लिखे जा चुके हैं। कई अभी लिखे जाने बाकी भी होंगे। किन्हीं के लिए यह ‘कर्नाटक का नाटक’ है। वैसे कन्नड़ के जिन दो शब्दों कर्ण व नाडु से मिलकर कर्नाटक बना है उसका मतलब होता है ऊंची भूमि। इस भूमि पर नया इतिहास लिखा नहीं दोहराया भर गया है। अतीत में भारतीय जनतंत्र ने न जाने कितनी बार ऐसा होते देखा है। राजनीति में राज जब राजनीति में से राज को रख लिया व नीति को भुला दिया जाता है। तब ऐसी ही तस्वीर सामने आती है। जनता बार-बार आईना दिखाती है लेकिन उसे देखना कोई नहीं चाहता। कर्नाटक ने चुनाव परिणाम आने से लेकर बीएस येदियुरप्पा सरकार के इस्तीफे तक भारतीय लोकतंत्र के लिए ढेरों सवाल छोड़ दिए हैं। जिनका जवाब आज नहीं तो कल तलाशना ही होगा। अगर जनप्रतिनिधियों के लिए सत्ता महज अवसर है तो वह जनता का सेवक होने का राग अलापना छोड़ ही दें तो बेहतर होगा। किसका डर यह पूछा जाना चाहिए कि किसके डर से कर्नाटक के विधायक होटल व रिजॉर्ट में बंधक बने रहे। किसी भी लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों को जनता का डर होना चाहिए। जनत
तेजी से डिजिटल होती दुनिया में डिजिटल डिवाइड के इस पार भी एक दुनिया है