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लोग जिनके लिए न तो मोमबत्तियां जली, न ही प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बने

गांधी जयंती पर कर्तव्‍य की इतिश्री  गांधी जयंती पर बापू की प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाकर हमने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली। हम में से कई ने यह टीवी पर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी', रजत कपूर की 'द मेकिंग ऑफ द महात्‍मा' या संजय दत्‍त की 'लगे रहो मुन्‍नाभाई' देखकर पूरा किया। जो यह नहीं कर सके उन्‍होंने फेसबुक, ट्विटर व वॉट्सएप पर महात्‍मा गांधी को याद किया। कई ने स्‍वच्‍छ भारत अभियान के बहाने ही सही झाड़ू के साथ सेल्‍फी ही ले ली। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से परेशान लोगों से इससे अधिक की उम्‍मीद करना भी बेमानी है। वैसे भी जिनके विचारों से दूरी बनानी होती है हम उनकी मूर्तियां लगा देते हैं। उन्‍हें भगवान बना देते हैं। मौका पड़ने पर यह कहकर पल्‍ला झाड़ लेते हैं कि 'हम इंसान हैं' । न तो मोमबत्‍ती जली न प्राइम डिबेट का मुद्दा बने  सड़क पर खुले पड़े मैनहोल के बगल से बचकर निकलते हमें इस 'इंसानियत' का ख्‍याल नहीं ही आता है। उन चेहरों की भी याद नहीं आती जिन्‍हें अकसर हम बिना किसी सुरक्षा उपकरण नंगे बदन सीवर साफ करने के लिए उनके भीतर उतरते देखते हैं। हमें तब गा

डीएमके कार्यालय में कविता सुनाते करुणानिधि

जीत की पटकथा मई का महीना रहा होगा, तारीख ठीक से याद नहीं। साल 2006, तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के परिणाम अभी आए ही थे। यह तय चुका था कि जयललिता की सरकार जा रही है। द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) सहयोगी दलों के साथ सत्‍ता में वापसी करने में कामयाब रही थी। इस जीत की पटकथा असल जिंदगी में स्क्रिप्‍ट राइटर व राजनेता एम करुणानिधि ने लिखी थी। 82 साल की उम्र में वह पार्टी को सत्‍ता में वापस लाने में सफल रहे थे। पांच साल पहले ही राज्‍य की जनता ने उन्‍हें टीवी स्‍क्रीन पर धकियाए व गिरफ्तार कर जेल ले जाए जाते देखा था। यह घटना 2001 में जयललिता की सत्‍ता में वापसी के ठीक बाद की है। जिसकी छवियां अभी धुंधली नहीं पड़ी थी। जिन लोगों ने तमिलनाडु की राजनीति को करीब से देखा है उनके लिए इस उक्‍त‍ि पर यकीन करना मुश्‍क‍िल हो सकता है कि राजनीति में कोई स्‍थाई शत्रु या मित्र नहीं होता। द्रविड़ राजनीति के दो ध्रुव इंडिया टुडे तमिल की संपादक रही वासंती ने अपनी किताब 'कटआउट, कास्‍ट एंड पॉलिटिक्‍स' में 1989 में एम करुणानिधि के कार्यकाल में तमिलनाडु विधानसभा के भीतर जयललिता की साड़ी खींचे जाने की घटना

भारतीय लोकतंत्र के लिए कर्नाटक के सवाल

भारत के दक्षि‍ण में विंध्‍य के पार कर्नाटक में जारी सियासी महाभारत के कई अध्‍याय लिखे जा चुके हैं। कई अभी लिखे जाने बाकी भी होंगे। किन्‍हीं के लिए यह ‘कर्नाटक का नाटक’ है। वैसे कन्‍नड़ के जिन दो शब्‍दों कर्ण व नाडु से मिलकर कर्नाटक बना है उसका मतलब होता है ऊंची भूमि। इस भूमि पर नया इतिहास लिखा नहीं दोहराया भर गया है। अतीत में भारतीय जनतंत्र ने न जाने कितनी बार ऐसा होते देखा है। राजनीति में राज जब राजनीति में से राज को रख लिया व नीति को भुला दिया जाता है। तब ऐसी ही तस्‍वीर सामने आती है। जनता बार-बार आईना दिखाती है लेकिन उसे देखना कोई नहीं चाहता। कर्नाटक ने चुनाव परिणाम आने से लेकर बीएस येदियुरप्‍पा सरकार के इस्‍तीफे तक भारतीय लोकतंत्र के लिए ढेरों सवाल छोड़ दिए हैं। जिनका जवाब आज नहीं तो कल तलाशना ही होगा। अगर जनप्रतिनिधियों के लिए सत्‍ता महज अवसर है तो वह जनता का सेवक होने का राग अलापना छोड़ ही दें तो बेहतर होगा। किसका डर यह पूछा जाना चाहिए कि किसके डर से कर्नाटक के विधायक होटल व रिजॉर्ट में बंधक बने रहे। किसी भी लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों को जनता का डर होना चाहिए। जनत