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लोग जिनके लिए न तो मोमबत्तियां जली, न ही प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बने


गांधी जयंती पर कर्तव्‍य की इतिश्री 
गांधी जयंती पर बापू की प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाकर हमने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली। हम में से कई ने यह टीवी पर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी', रजत कपूर की 'द मेकिंग ऑफ द महात्‍मा' या संजय दत्‍त की 'लगे रहो मुन्‍नाभाई' देखकर पूरा किया। जो यह नहीं कर सके उन्‍होंने फेसबुक, ट्विटर व वॉट्सएप पर महात्‍मा गांधी को याद किया। कई ने स्‍वच्‍छ भारत अभियान के बहाने ही सही झाड़ू के साथ सेल्‍फी ही ले ली। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से परेशान लोगों से इससे अधिक की उम्‍मीद करना भी बेमानी है। वैसे भी जिनके विचारों से दूरी बनानी होती है हम उनकी मूर्तियां लगा देते हैं। उन्‍हें भगवान बना देते हैं। मौका पड़ने पर यह कहकर पल्‍ला झाड़ लेते हैं कि 'हम इंसान हैं' ।

न तो मोमबत्‍ती जली न प्राइम डिबेट का मुद्दा बने 
सड़क पर खुले पड़े मैनहोल के बगल से बचकर निकलते हमें इस 'इंसानियत' का ख्‍याल नहीं ही आता है। उन चेहरों की भी याद नहीं आती जिन्‍हें अकसर हम बिना किसी सुरक्षा उपकरण नंगे बदन सीवर साफ करने के लिए उनके भीतर उतरते देखते हैं। हमें तब गांधी भी याद नहीं आते। जिन्‍होंने कहा था कि 'जो समाज की गंदगी साफ करता है उसका स्थान मां की तरह होता है'। बहरहाल हकीकत में जो इस काम को अंजाम देते हैं हम उन्‍हें इंसान भी नहीं समझते। काश, हम और हमारा सिस्‍टम आंकड़ों की ही जुबान समझता। जनवरी 2017 से अब तक हर पांचवों दिन सीवर या सेप्टिक टैंक साफ करने उतरा कोई न कोई इंसान लाश में तब्‍दील होकर घर लौटा है। अकेले दिल्‍ली में महीने भर के भीतर छह लोगों ने इस तरह जान गंवाई है। सफाई कर्मचारी आंदोलन के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच 1268 लोगों की मौत इस तरह हुई है। उनके लिए न तो मोमबत्‍ती जली न ही वह प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बने। इसलिए क्‍योंकि वह हमारी जिंदगी का अहम हिस्‍सा होते हुए भी हमारे लिए नहीं के बराबर हैं।

इंसानी जिंदगियों का सीवर में समाते जाना 
हम में से बहुत से लोगों के लिए इंसानी जिंदगियों का इस तरह सीवर में समाते जाना कोई मुद्दा ही नहीं है। यही वजह है कि सुई से लेकर सैटेलाइट तक बनाने वाला देश इस अमानवीय काम में तकनीक का इस्‍तेमाल न के बराबर करता है। बात सिर्फ उनकी नहीं है जो उनमें उतरने के बाद घर लौटकर नहीं आते। जिन्‍हें मुआवजा थमाकर व घटना पर बयान देकर फाइल बंद कर दी जाती है। उनकी भी है जो जिंदा होते हुए भी बार-बार नर्क में उतरने को मजबूर हैं। पैसों के लिए कितने लोग इस काम को करना चाहेंगे। इंसानी गरिमा भी कोई चीज होती है। जब तक समाज इस बात को नहीं समझेगा हल निकलना मुश्‍कि‍ल है। सफाई कर्मचारियों के बीच अपने काम के लिए रमन मेगसायसाय अवार्ड से सम्‍मानित हो चुके बेजवाड़ा विल्‍सन भी तकनीक की पैरवी करते हैं। बहरहाल कितने नगर निकाय हैं जो इस काम में उसे अपनाने की सोच भी रहे हैं। जो सोचते भी हैं वो खर्च का बहाना बनाकर कन्‍नी काट लेते हैं।

कितने स्‍टार्ट अप, कितने आईआईटी 
कितने स्‍टार्ट अप हैं जो इस काम के लिए लो कॉस्‍ट टेक्‍नोलॉजी विकसित करने के काम में लगे हैं। गिनती उंगलियों पर है। कितने निवेशक हैं जो इस काम में लगे स्‍टार्ट अप्‍स की मदद को आगे आने को तैयार हैं। कितनी आईआईटी हैं जहां इस सवाल का जवाब खोजा जा रहा है कि इस काम के लिए सबसे बेहतर तकनीक क्‍या हो सकती है। सरकार व समाज इसकी जिम्‍मेदारी व्‍यक्‍त‍ि व संगठनों पर छोड़कर चैन की नींद नहीं सो सकते।

केरल में दिखी उम्‍मीद की किरण
इस सबके बीच उम्‍मीद की किरणें भी हैं। केरल में 9 युवा इंजीनियरों ने मिलकर स्‍टार्ट अप 'जेनरोबोटिक्‍स' शुरू किया है। जिसने राज्‍य सरकार के इनक्‍यूबेटर केरल स्‍टार्ट अप मिशन की मदद से इस काम के लिए रोबोट ''बैंडीकूट विकसित किया है। ट्रायल रन सफल होने के बाद केरल जल प्राधिकरण राजधानी तिरुवनंतपुरम में सीवर सफाई का पूरा काम इसी के हवाले करने की तैयारी में है। स्‍टार्ट अप सफाईकर्मियों को इन्‍हें चलाना सिखा है। वहीं तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में 10 इंजीनियरों ने मिलकर छोटे आकार का रोबोट 'सीवर क्रोक' बनाया है। हैदराबाद मेट्रोपोलिटन वॉटर सप्‍लाई एंड सीवरेज बोर्ड 28 'सीवर क्रोक' का ऑर्डर दे चुका है। बहरहाल अभी भी यह प्रयास बेहद छोटे पैमाने पर व सीमित हैं।

इतने से काम नहीं चलेगा
जिस तेजी से शहरीकरण हो रहा है इनका फलक बड़ा करना होगा। एक नहीं अनेक स्‍टार्ट अप्‍स की जरूरत है जो कम लागत में ऐसी तकनीक विकसित करें जिसका बड़े पैमाने पर उपयोग हो सके। इस काम में निवेश की भी जरूरत होगी। साथ ही अभी तक इस काम में लगे लोगों को तकनीक के उपयोग के लिए प्रशिक्षित भी करना होगा। इतना ही नहीं नगर निकायों को एक दूसरे के अनुभवों से सीखने की भी जरूरत है। अगर कहीं कोई तकनीक कामयाब हो रही है तो उसे अपनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। बंगलुरू में दो साल पहले सीवर ट्रीटमेंट प्‍लांट की सफाई के दौरान तीन सफाईकर्मियों की मौत ने केरल के उन युवा इंजीनियरों को सोचने को मजबूर किया। हैदराबाद में भी इंजीनियर लगातार होने वाली इन घटनाओं के बाद साथ आए।

हालात बदलने की जिम्‍मेदारी सबकी
अगर गटर में गिरकर कोई मरना नहीं चाहता तो हम इस बात की इजाजत कैसे दे सकते हैं कि कोई गटर में उतरकर मौत को गले लगाता रहे। यह जिम्‍मेदारी सरकार व समाज की है। मुंह फेर लेने से हकीकत बदल नहीं जाती। अभी जो है वह भयावह है। इंसानी जिंदगियां महज आंकड़ा नहीं होती। जिनकी गिनती कर जिम्‍मेदारी पूरी समझ ली जाए। हालात बदलने की जिम्‍मेदारी भी किसी एक की नहीं बल्‍क‍ि सबकी है।

दैनिक जागरण आई नेक्‍स्‍ट में दिनांक 7 अक्‍टूबर, 2018 को प्रकाशित

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