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हजार का नोट हो जाना...!

इन दिनों नया मुहावरा चलन में है 'हजार का नोट हो जाना' मतलब किसी काम का न होना। जिनकी जेब में 50 या 100 के नोट नहीं हैं। वह इन दिनों ऐसा ही फील कर रहे हैं। बैंकों के बाहर लंबी कतार व एटीएम पर नो कैश की तख्‍ती मुंह चिढ़ाती सी लगती है। वहीं किसी को काले धन को गोरा बनाने की फिक्र है। हमारे पुरखों ने जब कागज के नोट के बारे में सोचा होगा। उनका इरादा किसी मुश्‍किल को हल करने का रहा होगा। वे मुश्‍किल बन जाएंगे इस बात का इल्‍म नहीं रहा होगा। यही वजह है कि दुनिया भर में कागज के नोट इतिहास बन रहे हैं। विकसित अर्थव्‍यवस्‍थाओं ही नहीं विकासशील देशों में भी उनका भविष्‍य खतरे में नजर आ रहा है। फिलहाल भारत में हालात अलग हैं। कब तक यह कोई कह नहीं सकता। अगर हमारा देश कैशलेस इकोनॉमी होता तो शायद हमें 500-1000 के नोट बंद होने का पता ही नहीं चलता। हम दुनिया में सबसे ज्‍यादा नकद लेनदेन करने वाले देशों में शुमार हैं। हमारे यहां 98 प्रतिशत लेनदेन नकद होता है। जिसका मूल्‍य कुल लेनदेन का 68 प्रतिशत है। यह प्राइसवाटरहाउस कूपर्स की 2015 की रिपोर्ट कहती है। जबकि चीन में यह प्रतिशत 90 व 45 है। वहीं अमर

जिसकी लाठी उसकी भैंस, ये है गांधी का देश

मजबूरी का नाम कब महात्‍मा गांधी हो गया पता ही नहीं चला। आजादी के बाद गांधी दिल से निकलकर जेब में रखे बटुए में समा गए। गांधी , कौन ? यह कहकर दिमाग पर जोर न देना पड़े। इसलिए नेताओं ने गली , चौराहों पर उनकी मूर्तिया लगवा दीं। बहरहाल अब उनके लगने का सिलसिला भी थम गया है। गांधी का कभी किसी बैंक में खाता रहा पता नहीं यह तय है कि उनका कोई वोट बैंक नहीं है। मूर्तियों पर 2 अक्‍टूबर को होने वाले सालाना जलसे में फूल-मालायें चढ़ जाती हैं। पहले मुन्‍नाभाई को गांधी की जरूरत पड़ा करती रही होगी। अब लोगों के जेहन में बने रहने के लिए उन्‍हें मुन्‍नाभाई की जरूरत है। उनकी मूर्तियों पर जमा धूल शायद स्‍वच्‍छ भारत अभियान में साफ हो जाए। उनके विचारों पर धूल की परत साल दर साल जमती जा रही है। महात्‍मा गांधी के बारे में महान वैज्ञानिक अल्‍बर्ट आइंस्‍टीन ने कभी कहा था कि आने वाली पीढ़ियां कभी यकीन नहीं करेंगी कि हाड़ मांस का यह इंसान कभी धरती पर रहा होगा। अब हम आइंस्‍टीन को गलत कैसे साबित होने दे सकते हैं। पहले हमने गांधी को भगवान बनाया फिर उनसे पल्‍ला झाड़ लिया। अब भगवान सा काम इंसान भला कैसे कर सकता है। उस

रियो ओलंपिक 2016: किसे मांगनी चाहिये माफी

रियो ओलंपिक में पीवी सिंधू व साक्षी मलिक की कामयाबी पर गदगद देश को उनके लिये भी समय निकालना चाहिये जो पोडियम तक नहीं पहुंचे। हार के बाद भारतीय हॉकी टीम के कप्‍तान पी श्रीजेश ने माफी मांगी। इसलिए कि वह देशवासियों की उम्‍मीद पर खरा नहीं उतर सके। बावजूद इसके कि उनकी अगुवाई में 36 साल बाद टीम नॉकआउट स्‍टेज तक पहुंची थी। टेनिस स्‍टार सानिया मिर्जा ने भी माफी मांगी। इसलिए कि स्‍वतंत्रता दिवस पर भारतवासियों को ओलंपिक मेडल का उपहार न दे सकीं। आखिर माफी किसे मांगनी चाहिए। स्‍कूटर के कलपुर्जों पर अपनी प्रतिभा निखारने वाली जिमनास्‍ट दीपा करमाकर को। जिसके अपने फिजियो को साथ भेजने के अनुरोध को खेल प्राधिकरण ने पहले गैरजरूरी मानकर नकार दिया था। खेल मंत्री विजय गोयल को जो रियो को भी दिल्‍ली समझ बैठे। उन अधिकारियों को जो खुद बिजनेस क्‍लास में सफर कर रियो पहुंचे लेकिन एथलीट दुतीचंद को इकॉनमी क्‍लास में बिठा दिया। जमानत पर बाहर चल रहे इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन (आईओए) के पूर्व अध्‍यक्ष अभय चौटाला को। जिनके रियो पहुंचने पर खुद कोर्ट हैरान है। रियो में स्‍टेडियम की बजाय दर्शनीय स्‍थलों पर न जाने किसका हौ

इंटरनेट के जादूगर की तलाश में...

बरसों बाद मैंने किसी साइबर कैफे में कदम रखा था। खाली पड़े केबिन मायूस नजर आते थे। कंप्‍यूटर स्‍क्रीन की सूनी आंखें सन्‍नाटे को निहारती लग रही थीं। अरसे से इंसानी उंगलियों की थिरकन से महरूम की-बोर्ड और माउस बेचैन लग रहे थे। वह जगह कभी इंटरनेट की दुनिया का ककहरा सीखने वालों से गुलजार रही होगी। जहां लोग अपनी बारी का इंतजार करते थे। सामने कुर्सी पर बैठा कैफे का संचालक वहां आने-जाने वालों के लिए किसी जादूगर से कम नहीं रहा होगा। जिसके बारे में मानकर चला जाता था कि इंटरनेट की जादुई दुनिया के बारे में उसे वहां आने वालों से ज्‍यादा मालूम है। इंटरनेट की दुनिया का जादू बदस्‍तूर बढ़ रहा है लेकिन उस जादूगर का असर कम हो चला है। हम में से बहुतेरे उस जादूगर से कभी न कभी मिले होंगे। बहरहाल नई जेनरेशन के पास अपनी जादू की छड़ी है। छड़ी जो हम में से भी कई के पास है। जिसे हम स्‍मार्टफोन कहते हैं। गली में किसी से मोबाइल इंटरनेट की बारिकियां सीखते उस दस बरस के लड़के से पूछियेगा। गौर कीजियेगा उसकी आंखें उत्‍साह से कैसे चमक उठती हैं। ट्रेन में ईयरफोन लगाए अपनी सीट पर खामोशी से बैठे युवा पर नजर डालियेगा। अपन

ब्रेक्‍सिट के बाद ओके टाटा फिर मिलेंगे

ट्रैफिक ठहरा हुआ है। ठीक आगे चल रहे ट्रक के पीछे लिखा है, ओके टाटा फिर मिलेंगे। टाटा पढ़कर ख्‍याल आता है यूरोपीय यूनियन (ईयू) से अलग हो रहे ब्रिटेन में टाटा समूह की 19 कंपनियों की मौजूदगी है। जिनमें 60 हजार लोग काम करते हैं। ब्रिटिश काल का वह किस्‍सा भी जब टाटा समूह के संस्‍थापक जमशेदजी टाटा को मुंबई के वाटसन होटल में एंट्री देने से मना कर दिया गया था। इसलिए कि वह यूरोपीय नहीं हैं। जिसके बाद ताज होटल की स्‍थापना हुई। उसी ब्रिटेन की यूरोपीय यूनियन से एग्‍जिट पर यकीन जरा मुश्‍किल है। बहरहाल ब्रेक्‍जिट अब हकीकत है। जनमत संग्रह का आइडिया देने वाले ब्रिटिश पीएम डेविड कैमरन पद छोड़ने की घोषणा कर चुके हैं। किसी को ग्‍लोबलाइजेशन का अंत नजदीक नजर रहा है। तो कोई इसे एकीकृत यूरोप के सपने का अंत और राष्‍ट्रवाद की वापसी बता रहा है। बहरहाल अगर हम सतह के नीचे जाकर देखेंगे तो नई कहानी सामने आती है। इस कहानी में भारत व दक्षिण एशिया के लिए भी निहितार्थ छिपे हैं। 'ब्रेक्‍सिट' व 'ब्रिमेन' (ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन में बने रहने के समर्थकों का गढ़ा शब्‍द) असल में पुरानी व नई पीढ़ी के

पता लगाएं कहां है जंगलराज?

इन दिनों जंगलराज ट्रेंड में है। जब जहां जिसका मन आता है, उसका गान शुरू हो जाता है। लोग अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से जंगल भी खोज लाते हैं और जंगलराज भी। सिर्फ राज्‍य बदल जाते हैं। कभी बिहार, कभी पश्‍चिम बंगाल, कभी झारखंड तो कभी उत्‍तर प्रदेश। अपनी सुविधानुसार नामों में बदलाव होता रहता है। अब आप ही बताइए बिहार में जंगलराज कैसे हो सकता है। जब जंगल ही नहीं है। राज्‍य के कुल क्षेत्रफल में से सिर्फ सात प्रतिशत पर वन हैं। उत्‍तर प्रदेश में भी हाल कुछ ऐसा ही है। दिल्‍ली, हरियाणा व पंजाब में तो जंगलराज की आशंका और भी कम है। दिल्‍ली-पंजाब में वन प्रतिशत छह तो हरियाणा में चार ही है। इसीलिए दिल्‍ली को सांस लेने के लिए ऑड-इवेन जैसे फॉर्मूलों की जरूरत पड़ती रहती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जमीन पर जंगल भले ही कम हों लेकिन उन्‍हें लेकर ढेर सारी योजनाएं हवा में तैरती और फाइलों में दौड़ती रहती हैं। वैसे अगर जंगल या जंगलराज किसी इंसान का नाम होता तो हकीकत देखकर पता नहीं कितना ह्यूमिलिएटिंग फील करता। इसकी कल्‍पना ही की जा सकती है। बहरहाल आगे     बढ़ते हैं। अब अगर बिहार, उत्‍तर प्रद

अर्थव्‍यवस्‍था का कट, कॉपी, पेस्‍ट मॉडल

गली से गुजरते हुए टीनएजर्स के समूह के बीच से आता 'प्‍ले स्‍टोर खुल गया' का शोर. बायो की ई-बुक डाउनलोड करने के लिए परेशान वो 16-17 बरस का लड़का. ऑटो चालक गोपाल की सीट के सामने विंडशील्‍ड के पास लगा टैक्‍सी एग्रीगेटर सर्विस का इंटरनेट व जीपीएस इनेबल्‍ड स्‍मार्टफोन. रोजमर्रा की जिंदगी में देखें तो लोग बदलाव को अपनाने के लिए तैयार नजर आते हैं. कभी आपसी बातचीत पर गौर करिएगा. सामने वाला शख्‍स अकसर आपसे जानना चाहता है कि आपकी जिंदगी में नया-ताजा क्‍या चल रहा है. यह नया ही सोच में ताजगी और काम में इनोवेशन की राह खोलता है. नए अवसर नई चुनौतियां के साथ आते हैं. यहीं अकसर लोगों के कदम थम जाते हैं. दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍था यानी भारत या फिर बतौर इंडिविजुअल इनोवेशन की डगर कांटों भरी है. वैसे गुलाब के फूल कांटों के बीच ही उगते हैं. अकसर लोग सवाल करते हैं कि अमरीका, चीन की तरह भारत के पास अपना गूगल या फेसबुक क्‍यों नहीं है. अमरीका के पास अगर गूगल, फेसबुक, टि्वटर और अमेजन है तो चीन के पास बायडू, रेनरेन, वायबो और अलीबाबा है. यह इकनॉमी का 'कट, कॉपी, पेस्‍ट मॉडल' है. च

पहचान तलाशते नागरिक का 'आधार'

'आधार' को कानूनी आधार मिलने के साथ ही फिल्‍म डॉन में गाया किशोर कुमार का गाना याद आ रहा है। अरे दीवानों मुझे पहचानो, कहां से आया मैं हूं कौन। सरकारी एजेंसियों के पास किसी काम से जाने वाले भारतीय नागरिक इस सवाल से दो चार होते रहे हैं। बैंक में खाता खुलवाने से लेकर मोबाइल फोन का सिम कार्ड लेने तक। पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर पासपोर्ट बनवाने तक। हर जगह पहचान की जरूरत होती है। जिस 'मैं हूं कौन' का जवाब हम ताउम्र नहीं खोज पाते उसका जवाब जानने में सरकारी दफ्तर हमारी मदद करते आए हैं। वोटर कार्ड नहीं तो बिजली का बिल, अरे टेलीफोन का बिल दे दीजिएगा। ऐसे न जाने कितने संवादों से आप और हम रूबरू हुए होंगे। लंबे समय तक भारतीयों के लिए राशन कार्ड उनकी पहचान का एकमात्र आधार रहा है। फिर वोटर कार्ड आया। अब श्‍वेत-श्‍याम नहीं रंगीन। यह कार्ड राजनीति का आधार भी मजबूत करते रहे हैं। यकीन न हो तो कभी अपने मोहल्‍ले के पार्षद या सभासद से पूछकर देखिएगा। देश की राजनीति भी पहचान के मुद्दे पर ठंडी-गरम होती रही है। आपको भले ही मजाक लगे पहचान बड़ी चीज है। कभी बेहतर मौकों या पढ़ाई के लि

संविधान पर गर्व करिए पर नसीहतें भी याद रखिए

26 जनवरी के आने और जाने की कितनी अहमियत है.  आखिर वो महज इक तारीख ही तो है. जो कैलेंडर का पन्ना पलटने के साथ ही भुला दी जाती है. फिर भी हम उसे याद करते हैं. इसलिए कि सवाल तारीख नहीं तवारीख का है. साल 1950 जिसका गवाह था. एक  मुल्क पहले अपना मुस्तकबिल लिखता फिर उसे हकीकत बनते देखता है. बात जिसे इस दिन अकसर टीवी पर लाल किले पर लहराता तिरंगा और राजपथ से गुजरती परेड देखकर हम बिसरा देते हैं. हमारा मुल्क जिस बुनियाद पर खड़ा है. वह भारत का संविधान है. जिसे बनाने वालों का हमें तहेदिल से शुक्रगुजार होना चाहिए. विविधताओं से भरे देश में यह काम कितना मुश्‍किल रहा होगा. इसका हम आज अंदाजा भी नहीं लगा सकते. अपने तमाम मतभेदों और भिन्नताओं के बावजूद अगर आज हम एक राष्ट्र हैं तो इसके पीछे उनकी दूरंदेशी का वह दस्तावेज है. अगर यकीन न आए तो कभी अपने पड़ोसी मुल्कों  की ओर नजर उठाकर देखिएगा. दक्षिण एशिया के तमाम देश हमारे साथ या आगे-पीछे आजाद हुए. वक्त  ने उन्हें और हमें एक साथ कसौटी पर कसा. इसके बावजूद उनके और हमारे बीच आज जमीन-आसमान का फर्क है. पाकिस्तान हमसे अलग होकर 1947 में आजाद मुल्क बना. उसके नाग