26 जनवरी के आने और जाने की कितनी अहमियत है. आखिर वो महज इक तारीख ही तो है. जो कैलेंडर का पन्ना पलटने के साथ ही भुला दी जाती है. फिर भी हम उसे याद करते हैं. इसलिए कि सवाल तारीख नहीं तवारीख का है. साल 1950 जिसका गवाह था. एक मुल्क पहले अपना मुस्तकबिल लिखता फिर उसे हकीकत बनते देखता है. बात जिसे इस दिन अकसर टीवी पर लाल किले पर लहराता तिरंगा और राजपथ से गुजरती परेड देखकर हम बिसरा देते हैं.
हमारा मुल्क जिस बुनियाद पर खड़ा है. वह भारत का संविधान है. जिसे बनाने वालों का हमें तहेदिल से शुक्रगुजार होना चाहिए. विविधताओं से भरे देश में यह काम कितना मुश्किल रहा होगा. इसका हम आज अंदाजा भी नहीं लगा सकते. अपने तमाम मतभेदों और भिन्नताओं के बावजूद अगर आज हम एक राष्ट्र हैं तो इसके पीछे उनकी दूरंदेशी का वह दस्तावेज है.
अगर यकीन न आए तो कभी अपने पड़ोसी मुल्कों की ओर नजर उठाकर देखिएगा. दक्षिण एशिया के तमाम देश हमारे साथ या आगे-पीछे आजाद हुए. वक्त ने उन्हें और हमें एक साथ कसौटी पर कसा. इसके बावजूद उनके और हमारे बीच आज जमीन-आसमान का फर्क है.
पाकिस्तान हमसे अलग होकर 1947 में आजाद मुल्क बना. उसके नागरिकों को चुने गए प्रतिनिधियों के हाथों बनाया पहला संविधान 1973 में मिला. उसके पहले दो बार संविधान बना 1956 व 1962 में. जो पाकिस्तान को एक नहीं रख सके. बांग्लाभाषियों के दमन के चलते 1971 में पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर स्वरतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बना. जिसने 1972 में अपना संविधान बनाया.
भाषा को लेकर पाकिस्तान ने जो रुख अपनाया. उससे अलहदा रास्ता भारत ने अख्तियार किया. संविधान सभा ने इस मसले पर लंबी बहस के बाद बीच का रास्ता निकाला. जो बहुभाषी बहुलतावादी समाज को जोड़े रखने व समय के साथ हिंदी को सर्वस्वीकार्य बनने के रास्ते पर ले जाने वाला साबित हुआ.
भारतीय संविधान में धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यकों का ख्याल रखा गया है. जिस देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ हो उसकी संविधान सभा के लिए यह काम यकीनन आसान नहीं रहा होगा. आज जब श्रीलंका तमिल अल्पसंख्यकों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए अधिक समावेशी नया संविधान रचने जा रहा है. जो उसके 1978 के संविधान की जगह लेगा. हम उस चुनौती के बारे में सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं. बहुसंख्यक सिंहलियों व तमिलों के बीच तनाव के चलते श्रीलंका ने दशकों तक गृहयुद्ध की विभीषिका झेली है. गणतंत्र बनने के बाद से यह उसका तीसरा संविधान होगा.
हमारे एक और पड़ोसी देश ने पिछले साल अक्तूबर में पहला गणतांत्रिक संविधान अंगीकार किया है. जिसके बाद से ही वहां मधेशी व जनजातियां गैर बराबरी को लेकर आंदोलनरत हैं. इसके चलते नेपाल-भारत के संबंधों में भी तनाव आया है. मधेशी नए बने संविधान में बदलाव की मांग कर रहे हैं. गौरतलब है कि बीते 67 वर्षों में नेपाल सात संविधान देख चुका है. आज जो सवाल वहां उठ रहे हैं वैसे कभी भारतीय संविधान सभा के सामने भी रहे होंगे. जिसका परिणाम समाज के अलग-अलग वर्गों को बराबरी पर लाने के लिए शामिल जरूरी प्रावधान हैं.
अगर दक्षिण एशिया के बाकी देशों की बात करें तो छोटे से द्वीपीय देश मालदीव में अब तक 13 बार संविधान बना है. लोकतांत्रिक संस्थााओं के कमजोर होने का असर वहां बढ़ते कट्टरपंथ के रूप में सामने आया है. अफगानिस्ताान में नया संविधान अक्तूबर 2004 में अस्तित्व में आया. भूटान ने 2008 में संविधान बनाया. यह साफ है कि दक्षिण एशियाई देशों के नागरिकों व राजनीतिक नेतृत्व के लिए संविधान व प्रजातंत्र का सफर किसी उबड़-खाबड़ सड़क पर चलने सरीखा रहा है.
इन सबके बीच भारत अपनी जगह मजबूती से खड़ा नजर आता है. आज वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. गणतंत्र भारत ने बिना किसी भेदभाव के अपने सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया. जब यहां संविधान बना दुनिया के कई देशों में महिलाओं, अल्पसंख्यकों व अश्वेतों को यह हक तक नहीं मिला हुआ था.
संविधान बनाने वालों के काम का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उन्हें 2473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा था. किसी अन्य देश की संविधान सभा के सामने शायद ही इतने संशोधन आए होंगे. ये यह भी बताता है कि प्रत्येक विषय को कितनी बारीकी से परखा गया होगा. उस पर विचार, विमर्श व मंथन की लंबी प्रक्रिया रही होगी. जिसका वर्तमान में संसद व विधानसभाओं के कामकाज में आभाव नजर आता है.
सभा को आने वाले कल की चुनौतियों का अहसास था. इसलिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जिसकी मूल भावना से छेड़छाड़ किए बगैर उसे भविष्य की जरूरतों के मुताबिक ढाला जा सके. संशोधन प्रक्रिया के बारे में डा. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि ‘जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता.
इस लंबी जद्दोजहद के बाद बने संविधान पर यकीनन हमें गर्व होगा लेकिन 26 जनवरी छुट्टी या जश्न मनाने का दिन भर नहीं है. यह दिन संविधान बनाने वालों की नसीहतों को भी याद करने का है.
संविधान सभा में नवम्बर 1949 में अपने समापन भाषण में डा. भीमराव अंबेडकर ऐसी ही कुछ बातों व लक्ष्यों की ओर इशारा किया था.
प्रजातंत्र पर आने वाले संकटों की ओर इशारा करते हुए उन्हों ने कहा था कि ‘भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता. धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है.’
उन्हें अहसास था कि आजाद भारत में सिर्फ राजनीतिक प्रजातंत्र के जरिए शोषित जन बराबरी नहीं पा सकेंगे. इसके लिए सामाजिक प्रजातंत्र की जरूरत पड़ेगी. जिसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना. हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए. जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता. सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है.
आखिरी और सबसे अहम बात. 'संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों. एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों.'
हम व हमारा राजनीतिक नेतृत्व कैसा है उसे आने वाली पीढ़ियां इसी कसौटी पर कसेंगी.
आईनेक्स्ट में दिनांक 24 जनवरी, 2015 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/701269/INext-Kanpur/24-01-16#page/12/1
हमारा मुल्क जिस बुनियाद पर खड़ा है. वह भारत का संविधान है. जिसे बनाने वालों का हमें तहेदिल से शुक्रगुजार होना चाहिए. विविधताओं से भरे देश में यह काम कितना मुश्किल रहा होगा. इसका हम आज अंदाजा भी नहीं लगा सकते. अपने तमाम मतभेदों और भिन्नताओं के बावजूद अगर आज हम एक राष्ट्र हैं तो इसके पीछे उनकी दूरंदेशी का वह दस्तावेज है.
अगर यकीन न आए तो कभी अपने पड़ोसी मुल्कों की ओर नजर उठाकर देखिएगा. दक्षिण एशिया के तमाम देश हमारे साथ या आगे-पीछे आजाद हुए. वक्त ने उन्हें और हमें एक साथ कसौटी पर कसा. इसके बावजूद उनके और हमारे बीच आज जमीन-आसमान का फर्क है.
पाकिस्तान हमसे अलग होकर 1947 में आजाद मुल्क बना. उसके नागरिकों को चुने गए प्रतिनिधियों के हाथों बनाया पहला संविधान 1973 में मिला. उसके पहले दो बार संविधान बना 1956 व 1962 में. जो पाकिस्तान को एक नहीं रख सके. बांग्लाभाषियों के दमन के चलते 1971 में पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर स्वरतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बना. जिसने 1972 में अपना संविधान बनाया.
भाषा को लेकर पाकिस्तान ने जो रुख अपनाया. उससे अलहदा रास्ता भारत ने अख्तियार किया. संविधान सभा ने इस मसले पर लंबी बहस के बाद बीच का रास्ता निकाला. जो बहुभाषी बहुलतावादी समाज को जोड़े रखने व समय के साथ हिंदी को सर्वस्वीकार्य बनने के रास्ते पर ले जाने वाला साबित हुआ.
भारतीय संविधान में धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यकों का ख्याल रखा गया है. जिस देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ हो उसकी संविधान सभा के लिए यह काम यकीनन आसान नहीं रहा होगा. आज जब श्रीलंका तमिल अल्पसंख्यकों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए अधिक समावेशी नया संविधान रचने जा रहा है. जो उसके 1978 के संविधान की जगह लेगा. हम उस चुनौती के बारे में सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं. बहुसंख्यक सिंहलियों व तमिलों के बीच तनाव के चलते श्रीलंका ने दशकों तक गृहयुद्ध की विभीषिका झेली है. गणतंत्र बनने के बाद से यह उसका तीसरा संविधान होगा.
हमारे एक और पड़ोसी देश ने पिछले साल अक्तूबर में पहला गणतांत्रिक संविधान अंगीकार किया है. जिसके बाद से ही वहां मधेशी व जनजातियां गैर बराबरी को लेकर आंदोलनरत हैं. इसके चलते नेपाल-भारत के संबंधों में भी तनाव आया है. मधेशी नए बने संविधान में बदलाव की मांग कर रहे हैं. गौरतलब है कि बीते 67 वर्षों में नेपाल सात संविधान देख चुका है. आज जो सवाल वहां उठ रहे हैं वैसे कभी भारतीय संविधान सभा के सामने भी रहे होंगे. जिसका परिणाम समाज के अलग-अलग वर्गों को बराबरी पर लाने के लिए शामिल जरूरी प्रावधान हैं.
अगर दक्षिण एशिया के बाकी देशों की बात करें तो छोटे से द्वीपीय देश मालदीव में अब तक 13 बार संविधान बना है. लोकतांत्रिक संस्थााओं के कमजोर होने का असर वहां बढ़ते कट्टरपंथ के रूप में सामने आया है. अफगानिस्ताान में नया संविधान अक्तूबर 2004 में अस्तित्व में आया. भूटान ने 2008 में संविधान बनाया. यह साफ है कि दक्षिण एशियाई देशों के नागरिकों व राजनीतिक नेतृत्व के लिए संविधान व प्रजातंत्र का सफर किसी उबड़-खाबड़ सड़क पर चलने सरीखा रहा है.
इन सबके बीच भारत अपनी जगह मजबूती से खड़ा नजर आता है. आज वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. गणतंत्र भारत ने बिना किसी भेदभाव के अपने सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया. जब यहां संविधान बना दुनिया के कई देशों में महिलाओं, अल्पसंख्यकों व अश्वेतों को यह हक तक नहीं मिला हुआ था.
संविधान बनाने वालों के काम का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उन्हें 2473 संशोधनों का निपटारा करना पड़ा था. किसी अन्य देश की संविधान सभा के सामने शायद ही इतने संशोधन आए होंगे. ये यह भी बताता है कि प्रत्येक विषय को कितनी बारीकी से परखा गया होगा. उस पर विचार, विमर्श व मंथन की लंबी प्रक्रिया रही होगी. जिसका वर्तमान में संसद व विधानसभाओं के कामकाज में आभाव नजर आता है.
सभा को आने वाले कल की चुनौतियों का अहसास था. इसलिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जिसकी मूल भावना से छेड़छाड़ किए बगैर उसे भविष्य की जरूरतों के मुताबिक ढाला जा सके. संशोधन प्रक्रिया के बारे में डा. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि ‘जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता.
इस लंबी जद्दोजहद के बाद बने संविधान पर यकीनन हमें गर्व होगा लेकिन 26 जनवरी छुट्टी या जश्न मनाने का दिन भर नहीं है. यह दिन संविधान बनाने वालों की नसीहतों को भी याद करने का है.
संविधान सभा में नवम्बर 1949 में अपने समापन भाषण में डा. भीमराव अंबेडकर ऐसी ही कुछ बातों व लक्ष्यों की ओर इशारा किया था.
प्रजातंत्र पर आने वाले संकटों की ओर इशारा करते हुए उन्हों ने कहा था कि ‘भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता. धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है.’
उन्हें अहसास था कि आजाद भारत में सिर्फ राजनीतिक प्रजातंत्र के जरिए शोषित जन बराबरी नहीं पा सकेंगे. इसके लिए सामाजिक प्रजातंत्र की जरूरत पड़ेगी. जिसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना. हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए. जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता. सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है.
आखिरी और सबसे अहम बात. 'संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों. एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों.'
हम व हमारा राजनीतिक नेतृत्व कैसा है उसे आने वाली पीढ़ियां इसी कसौटी पर कसेंगी.
आईनेक्स्ट में दिनांक 24 जनवरी, 2015 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/701269/INext-Kanpur/24-01-16#page/12/1
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें