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सब कुछ तर्क की कसौटी पर खरा नहीं होता

'अगर टमाटर खरबूजा होना चाहे, तो वे दिखने में कितने बेहूदा लगेंगे'। जापानी कवि मित्‍सुओ आइदा की यह लाइन हम में से न जाने कितनों पर फिट बैठेगी। वैसे कहा जाता है कि उन्‍हें इंसानी फितरत की गहरी समझ थी। उनकी इसी समझ पर अमरीकी अर्थशास्‍त्री रिचर्ड थेलर की टिप्‍पणी थी कि वे बिहेवेरियल इकोनॉमिस्‍ट रहे होंगे। गौरतलब है कि इस साल बिहेवेरियल इकोनॉमिक्‍स में अपने काम के लिए अर्थशास्‍त्र का नोबेल पुरस्‍कार रिचर्ड थेलर को ही मिला है। वैसे सोचने भर से कोई टमाटर खरबूजा होने से तो रहा। फिर भी अगर ऐसा हुआ तो...छोड़िए भी आप कहां अटक गए, आगे बढ़ते हैं। हम में से हर कोई हर रोज न जाने कितने फैसले ले रहा होता है। बच्‍चे का एडमिशन किस स्‍कूल में होगा से लेकर बेड पर किस रंग की चादर बिछेगी तक। घर के लिए परदे फ्लिपकार्ट से खरीदें या अमेजन से या पेटीएम कर लें। वैसे दुकान तक चलकर जाना कैसा रहेगा। बड़ी मुश्‍किल है। इसी डिसीजन मेकिंग को समझने के लिए थेलर इकोनॉमिक्‍स व साइकोलॉजी को करीब ले आए व खुद भी उनसे दोस्‍ती गांठ ली। इधर वह इंसानी बिहेवियर समझते रहे उधर बनी बनाई धारणाओं की खाट खड़ी हो गई। थेल

इंसान EQ माप रहा है, मशीनें IQ सुधार रही हैं

इंसानों से न सही मशीनों से हमारा रिश्‍ता गहरा हो रहा है। वह दिन दूर नहीं जब महान वैज्ञानिक अल्‍बर्ट आइंस्‍टीन की जगह मशीनों के आईक्‍यू (बौद्धिक स्‍तर) पर बात होगी। इंसान इक्‍यू (भावनात्‍मक स्‍तर) माप रहा है, वहीं मशीनें आईक्‍यू सुधार रही हैं। इंसान उन्‍हें इंटेलीजेंट बनाने में लगे हैं। ओरिजिनल की तलाश छोड़ दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) पर बहस-मुबाहिसा में उलझ चुकी है। इसमें स्‍टीफन हाकिंग से लेकर बिल गेट्स तक शामिल हैं। सिलिकन वैली से लेकर बंगलुरू तक एआई की आहट सिर्फ सुनी नहीं महसूस की जा सकती है। अभी तक दो चीजें हम इंसानों को मशीनों से अलग करती आई हैं। सीखने व समस्‍याओं को सुलझाने की काबिलियत। अगर मशीनें इस काबिल बन गईं तो दुनिया कहीं इधर से उधर तो नहीं हो जाएगी? फिलहाल ऐसा होता तो नहीं लगता। बहरहाल ऐसे ढेरों सवाल हैं जिनका जवाब एआई के उभार के साथ खोजना लाजिमी हो जाएगा। कोई नौकरियों पर मंडराता खतरा देख रहा है। तो किसी को सामाजिक ताने-बाने के तहस-नहस हो जाने का डर है। हालांकि ऐसे भी लोग हैं जिन्‍हें एआई में तमाम मुश्‍किलों का हल नजर आ रहा है। बीमारियों से लेकर गरीबी तक जि

भीड़ न तो विदेश नीति समझती है न ही कूटनीति

भीड़ न तो विदेश नीति समझती है न ही कूटनीति जानती है। वह उकसावे में आकर कहीं भी, कभी भी, किसी को भी कूट सकती है। भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। जिस भीड़ ने बीते दिनों ग्रेटर नोएडा में अफ्रीकी स्‍टूडेंट्स को पीटा। वही भीड़ अमरीका में भारतीयों के खिलाफ होने वाली हिंसा को लेकर कैंडिल मार्च निकालती नजर आ सकती है। ऑस्‍ट्रेलिया में इंडियन स्‍टूडेंट्स के खिलाफ नस्‍लीय हिंसा के विरोध में तख्‍तियां लेकर प्रदर्शन का भी हिस्‍सा हो सकती है। बीते बरसों में अलग-अलग शहरों में अफ्रीकी मूल के लोगों को निशाना बनाने वाली भीड़ को भारतीय उप महाद्ीप व अफ्रीका के बीच सदियों पुराने रिश्‍ते से कोई लेना-देना नहीं है। उसे शायद यह भी नहीं पता कि अफ्रीका कोई देश नहीं महाद्ीप है। जहां 54 अलग-अलग देश हैं। जिस तरह नए अवसरों की तलाश में इन देशों से बड़ी संख्‍या में लोग भारत पहुंचते हैं। कुछ उसी तरह बड़ी संख्‍या में भारतीय प्रवासी भी अवसरों की तलाश में अफ्रीका पहुंचते रहे हैं। रिश्‍तों की डोर लोगों के हाथ में होती है। जब तक लोग उन रिश्‍तों की अहमियत नहीं समझते और बने-बनाए पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं निकलते ऐसी घटनाओं पर

कभी इंफाल की आवाज भी सुनो

हमेशा की तरह मणिपुर सुर्खियों से गायब है. उसे इसकी आदत है। सिवाय इसके कि जब-तब हिंसा व आर्थिक नाकेबंदी के चलते उसका नाम दिख जाता है। गोवा, पंजाब, उत्‍तराखंड व उत्‍तर प्रदेश की तरह विधानसभा चुनाव वहां भी हो रहे हैं। हालांकि उसका शोर इतना तेज नहीं कि वह हमारे कानों तक पहुंच सके। वैसे भी वह सुदूर पूर्वोत्‍तर का राज्‍य है. जहां की आवाज ही नहीं लोगों को भी देश के बाकी हिस्‍सों तक पहुंचने में वक्‍त लगता है। नक्‍कारखाने में तूती की आवाज वाला मुहावरा यहां फिट है। आम आदमी यहां भी परेशान है। उसकी रोजमर्रा की जिंदगी पटरी पर आने से पहले उतरी रहती है। वह अलगाववादी संगठनों की फैलाई हिंसा की आग में झुलसता रहता है। विकास की आस पर कानून-व्‍यवस्‍था की हालत भारी पड़ती है। फिर भी उससे कम ही लोगों को सरोकार है। कई लोगों के लिए नक्‍शे में मणिपुर को खोजना काम है। कई को याद भी नहीं होगा कि महिला मुक्‍केबाजी में 5 बार की विश्‍व विजेता व ओलंपिक पदक विजेता मणिपुरी है। जिनका नाम मैरीकॉम है। यह भी संभव है कई लोग असल जिंदगी में बॉलीवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को मैरीकॉम समझ बैठें। इसलिए कि उन्‍होंने मैरीकॉम की

अक्‍लमंदों ने कौन सा दुनिया बदल ली है

हम हमेशा अपने आसपास बदलाव खोजते रहते हैं। इस उम्‍मीद में जीते रहते हैं कि आज नहीं तो कल बदलेगा। बहरहाल कई लोग खामोशी से बदलाव लेकर आ जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता। ऐसे लोग बदलाव लाते हैं जिनसे कोई उम्‍मीद भी नहीं लगाता। बदलाव जिसकी हम बात कर रहे होते हैं। उसे कोई और हकीकत बना रहा होता है। दिन-रात अपनी कठिनाइयों का रोना रोने वाले हम उन्‍हें जानते तक नहीं हैं। इस बार गणतंत्र दिवस पर पद्म पुरस्‍कार पाने वालों की लंबी फेहरिस्‍त में कई ऐसे नाम हैं जो बरसों से गुमनाम रहकर अपना काम करते आए हैं। गण जिनकी वजह से इस तंत्र में उम्‍मीद बाकी है। लोग जिन पर गणतंत्र को नाज है। पर्यावरण पर मंडराते खतरे पर दिन-रात पेशानी पर बल डालकर परेशानी जाहिर करने वालों में से कई ने दारिपल्‍ली रामैय्या का नाम तक नहीं सुना होगा। तेलंगाना राज्‍य के खम्‍मम जिले में हर रोज अपनी साइकिल पर मीलों चलकर बीज बिखेरते जाने वाले रामैय्या क्‍लाइमेट चेंज पर बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते। वह सारी धरती को हरा-भरा बनाने का भारी-भरकम सपना नहीं दिखाते। वह हर रोज अपने आसपास हरियाली का दायरा बढ़ाते चले जाते हैं। एक-दो नहीं एक करोड़ पेड