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सब कुछ तर्क की कसौटी पर खरा नहीं होता

'अगर टमाटर खरबूजा होना चाहे, तो वे दिखने में कितने बेहूदा लगेंगे'। जापानी कवि मित्‍सुओ आइदा की यह लाइन हम में से न जाने कितनों पर फिट बैठेगी। वैसे कहा जाता है कि उन्‍हें इंसानी फितरत की गहरी समझ थी। उनकी इसी समझ पर अमरीकी अर्थशास्‍त्री रिचर्ड थेलर की टिप्‍पणी थी कि वे बिहेवेरियल इकोनॉमिस्‍ट रहे होंगे। गौरतलब है कि इस साल बिहेवेरियल इकोनॉमिक्‍स में अपने काम के लिए अर्थशास्‍त्र का नोबेल पुरस्‍कार रिचर्ड थेलर को ही मिला है।
वैसे सोचने भर से कोई टमाटर खरबूजा होने से तो रहा। फिर भी अगर ऐसा हुआ तो...छोड़िए भी आप कहां अटक गए, आगे बढ़ते हैं। हम में से हर कोई हर रोज न जाने कितने फैसले ले रहा होता है। बच्‍चे का एडमिशन किस स्‍कूल में होगा से लेकर बेड पर किस रंग की चादर बिछेगी तक। घर के लिए परदे फ्लिपकार्ट से खरीदें या अमेजन से या पेटीएम कर लें। वैसे दुकान तक चलकर जाना कैसा रहेगा। बड़ी मुश्‍किल है। इसी डिसीजन मेकिंग को समझने के लिए थेलर इकोनॉमिक्‍स व साइकोलॉजी को करीब ले आए व खुद भी उनसे दोस्‍ती गांठ ली। इधर वह इंसानी बिहेवियर समझते रहे उधर बनी बनाई धारणाओं की खाट खड़ी हो गई। थेलर के कॉलेज के दिनों का किस्‍सा है। जिसे उन्‍होंने नोबेल पुरस्‍कार मिलने के ठीक बाद न्‍यूयॉर्क टाइम्‍स को बयां किया। एक दिन अपने साथियों के साथ कमरे में बैठकर काजू खा रहे थे। 20 मिनट बाद खाना परोसा जाना था लेकिन हाथ रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अब उन्‍हें लगा कि यहां दो कठिनाइयां है, पहली सेल्‍फ कंट्रोल नहीं हो रहा। सभी काजू खाए चले जा रहे हैं। दूसरी अदूरदर्शिता 20 मिनट बाद खाना जो लगने वाला है। उन्‍हें सूझा कि अगर काजू सामने नहीं होंगे तो खाने का लालच भी नहीं होगा। आखिरकार वह काजू उठाकर किचन में रख आए। जहां से उन्‍हें ले आना किसी के लिए भी आलस भरा काम था। थेलर की मानें तो उनका करियर ही काजू से शुरू हुआ। वैसे 2002 में अर्थशास्‍त्र का नोबेल पुरस्‍कार जीतने वाले डेनियल कानमैन फाइनेंशियल टाइम्‍स में कहते हैं कि रिचर्ड थेलर की अगर कोई सबसे स्‍पेशल बात है तो वह यह कि वे आलसी हैं। आपका तो दुनिया भर के आलसियों को सलाम करने को जी चाह रहा होगा। प्रोफेसर कानमैन ने उनके बारे में आगे यह भी जोड़ा था कि शायद आलस ही वह वजह है जिसके चलते वे सबसे दिलचस्‍प सवालों का जवाब ढ़ूढ़ने निकलते हैं। कभी निक्‍केई बिजनेस को दिए गए इंटरव्‍यू से उनके काम को समझने में मदद मिलती है। इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था कि इकोनॉमिस्‍ट आमतौर पर उन लोगों का अध्‍ययन कर रहे होते हैं जो बेहद स्‍मार्ट लोग हैं जिनसे कभी कोई गलती हो ही नहीं सकती। जो भावना शून्‍य हैं व जिनके साथ सेल्‍फ कंट्रोल और हैंगओवर जैसी कोई बात नहीं है। जबकि हम लोग इंसानों को स्‍टडी कर रहे होते हैं। इंसान उतने स्‍मार्ट नहीं है, ढेर सारी गलतियां करते हैं, खोए-खोए रहते व विचलित हो जाते हैं। उनके साथ सेल्‍फ कंट्रोल व हैंगओवर वाली प्रॉब्‍लम भी होती है।

अर्थशास्‍त्र की जटिलता को इतनी सरलता से समझाने का काम थेलर ही कर सकते हैं। शायद यही वजह रही होगी कि 2007-08 में आई मंदी व अमरीकी वित्‍तीय संकट पर बनी हॉलीवुड फिल्‍म द बिग शॉर्ट में वह अभिनेत्री सेलेना गोमेज के साथ सबप्राइम मॉर्गेज जैसे जटिल परिकल्‍पनाओं को समझाते नजर आते हैं। उनके मुताबिक सब कुछ तर्क की कसौटी पर खरा नहीं हो सकता। कई बार जो घट रहा होता है उसे देखकर आप तर्कहीन हो जाते हैं। उनकी कोशिश है कि इसी तर्कहीनता को प्रेडिक्‍ट किया जा सके। वैसे जिस दुनिया में पूरा व्‍यापार व व्‍यवहार तर्क की कसौटी पर टिका हो वहां तर्कहीनता के लिए जगह बनाना थोड़ा मुश्‍किल जरूर है। एक बार उन्‍होंने प्रोफेसर कानमैन के साथ मिलकर यूनिवर्सिटी की क्‍लास में स्‍टूडेंट्स के बीच अनोखा प्रयोग किया। वह समझना चाहते थे कि ओनरशिप का लोगों पर क्‍या असर होता है। उन्‍होंने आधे स्‍टूडेंट्स को कॉफी मग दिए व सभी से उनकी कीमत तय करने को कहा। जिनके पास पहले से मग थे उन्‍होंने उनकी कीमत दोगुनी लगाई बजाय उनके जिनके पास नहीं थे। यानी अगर कोई चीज आपके पास है तो आप उसकी बेहतर कीमत चाहेंगे जबकि उसे लेने वाला कम पर लेना चाहेगा। वे इसे एंडाउमेंट इफेक्‍ट बुलाते हैं। यहां तर्क की कसौटी पर दोनों समूहों को समान कीमत तय करनी चाहिए थी। अर्थशास्‍त्र के परंपरागत मॉडल के मुताबिक उत्‍पाद की कीमत ओनरशिप पर निर्भर नहीं करती है। जबकि यहां ठीक उल्‍टा हो रहा था। जब उनसे पूछा गया कि वह नोबेल पुरस्‍कार में मिली राशि को किस तरह खर्च करना चाहेंगे तो उनका जवाब था कि जहां तक हो सकेगा वह तर्कसंगत तो नहीं ही होगा। चलिए अर्थशास्‍त्र की जटिलताओं से बाहर निकलकर जापानी कवि मित्‍सुओ आइदा के पास लौटते हैं जिनसे खुद नोबेल पुरस्‍कार विजेता थेलर भी प्रभावित हैं। उन्‍होंने लिखा है, फूल सिर्फ खिलते हैं, और इसे वह जितनी अच्‍छी तरह कर सकते करते हैं। घाटी में खिलती अनदेखी सफेद लिली को, किसी को सफाई नहीं देनी है। वह सिर्फ सौंदर्य के लिए जी रही है। मगर इंसान इस 'सिर्फ' को स्‍वीकार नहीं कर सकता। आइदा की किताब का नाम है, 'आखिर हम सब इंसान ही तो हैं'। बात सोलह आने सच है। हम सब इंसान ही तो हैं। जो अनेक बार तर्कों से परे हो सकते हैं। रौशनी के त्‍योहार दीपावली के मौके पर जब हम खुशियां बटोरने व बांटने चलें तो जापानी कवि की इस लाइन को याद रख सकते हैं, 'खुशियां दिल से तय होती हैं'। दैनिक जागरण आई नेक्‍स्‍ट में दिhttp://inextepaper.jagran.com/1394821/INext-Kanpur/15-10-17#page/19/1
नांक 15 अक्‍टूबर 2017 को प्रकाशित

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