भीड़ न तो विदेश नीति समझती है न ही कूटनीति जानती है। वह उकसावे में आकर कहीं भी, कभी भी, किसी को भी कूट सकती है। भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। जिस भीड़ ने बीते दिनों ग्रेटर नोएडा में अफ्रीकी स्टूडेंट्स को पीटा। वही भीड़ अमरीका में भारतीयों के खिलाफ होने वाली हिंसा को लेकर कैंडिल मार्च निकालती नजर आ सकती है। ऑस्ट्रेलिया में इंडियन स्टूडेंट्स के खिलाफ नस्लीय हिंसा के विरोध में तख्तियां लेकर प्रदर्शन का भी हिस्सा हो सकती है।
बीते बरसों में अलग-अलग शहरों में अफ्रीकी मूल के लोगों को निशाना बनाने वाली भीड़ को भारतीय उप महाद्ीप व अफ्रीका के बीच सदियों पुराने रिश्ते से कोई लेना-देना नहीं है। उसे शायद यह भी नहीं पता कि अफ्रीका कोई देश नहीं महाद्ीप है। जहां 54 अलग-अलग देश हैं। जिस तरह नए अवसरों की तलाश में इन देशों से बड़ी संख्या में लोग भारत पहुंचते हैं। कुछ उसी तरह बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी भी अवसरों की तलाश में अफ्रीका पहुंचते रहे हैं। रिश्तों की डोर लोगों के हाथ में होती है। जब तक लोग उन रिश्तों की अहमियत नहीं समझते और बने-बनाए पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं निकलते ऐसी घटनाओं पर पूरी तरह रोक शायद ही लग सकेगी। कानून को बेशक अपना काम करना होगा। अगर भीड़ का इंसाफ कानून बन गया तो हमारे लिए खुद को सभ्य समाज कहलाना कठिन होगा।
हर समाज के अपने पूर्वाग्रह होते हैं। जिनसे उसे बाहर निकलना होता है। जैसे कि उत्तर भारत में सुंदर होने का पर्याय गोरा होना है। हमारा समाज ऐसे ढेर सारे पूर्वाग्रहों का शिकार रहा है। उनसे बाहर निकलने की छटपटाहट तो है लेकिन हम उनसे बाहर निकलते नहीं दिख रहे। मूल विषय पर वापस आते हैं।
अफ्रीका को मेनस्ट्रीम मीडिया में कम ही जगह मिलती है। भारत में वहां के निवासी सकारात्मक कम नकारात्मक वजहों से चर्चा में अधिक रहे हैं। पॉपुलर कल्चर ने उनकी अलग छवि गढ़ी है। बहुतेरे लोगों के मन में भी उनकी वही बनी बनाई छवि है। जिसमें सच व झूठ का घालमेल है। जिसमें से दोनों को अलग कर पाना कई बार कठिन होता है। छवि जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती चली जाती है। जिसे तोड़ना जरूरी होने पर भी वह बनी रहती है।
यह कुछ वैसा ही है जैसे कि पश्चिमी देशों ने भारत व भारतीयों की सपेरों के देश वाली छवि गढ़ ली थी। जो मंगल ग्रह पर इसरो का यान पहुंचने व आईटी इंडस्ट्री में भारतीयों की कामयाबी के बाद कमजोर तो हुई है। फिर भी गाहे-बगाहे उनके बर्ताव व मेनस्ट्रीम मीडिया में नजर आ जाती है।
जरूरत इन बनी बनाई छवियों को तोड़ने की है। हाल के वर्षों में भारत के प्रमुख शहरों में अफ्रीका के विभिन्न देशों से बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स पढ़ाई के लिए पहुंचे हैं। जब वह अपने देश लौटेंगे तो भारत व भारतीयों के ब्रांड एंबेसेडर हो सकते हैं। अगर वह अपने साथ सुखद स्मृतियां लेकर जाएंगे तो वहां निवासियों के साथ उन्हें ही बांटेंगे। अगर ऐसी घटनाएं जारी रहती हैं तो इसका ठीक उलट भी हो सकता है। वह भारत की सकारात्मक नहीं नकारात्मक छवि लेकर लौटेंगे।
उस महाद्ीप में लौटेंगे। जिसके देशों के समर्थन से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में परमानेंट सीट का अपना दावा मजबूत बना रहा है। जिनके साथ उसके ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंधों के अलावा आर्थिक व सामरिक हित जुड़े हुए हैं। जहां बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियों की मौजूदगी है। देश जिनके पास चीन इंवेस्टमेंट की चाशनी में लपेटी दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है।
साउथ एशियन मैगजीन फॉर एक्शन एंड रिफ्लेक्शन के मुताबिक अफ्रीकी देश नाइजीरिया में सबसे लोकप्रिय बॉलीवुड फिल्म मदर इंडिया है। फिल्म जिसके गाने व डायलॉग वह आज भी गुनगुनाते व दोहराते हैं। जब वही अकारण भीड़ के हाथों हिंसा का शिकार होते हैं। तो उनके मन में 'मदर इंडिया' की कौन सी छवि बनती होगी। सिर्फ हमारे मन में उनकी छवि नहीं है। वह अपने मन में भी हमारी छवि बनाते हैं। बात जिसे हम अकसर भूल जाते हैं।
भारत सरकार व अफ्रीकी देशों को लोगों को भी करीब लाने की दिशा में काम करना होगा। जिन भारतीय शहरों में बड़ी संख्या में अफ्रीकी देशों के नागरिक रह रहे हैं वहां स्थानीय लोगों व उनके बीच संवाद की पहल करनी होगी। इसके लिए औपचारिक मंच तैयार करना होगा। जिससे कि स्थानीय लोग अफ्रीकी देशों की संस्कृति व सभ्यता से परिचित हो सकें। उन्हें भारत व अफ्रीका के परंपरागत रिश्तों के बारे में बताना होगा। उन बनी बनाई छवियों को तोड़ना होगा। जो दूरियां बढ़ाती हैं। किन्हीं दो देशों, महाद्ीपों व सभ्यताओं के बीच रिश्तों की डोर लोगों के हाथ में होती है। अफ्रीका में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहे चीन को इस बात का बखूबी अहसास हो रहा है।
ग्लोबल इकॉनमी में वही आगे बढ़ेंगे जो दुनिया भर की विभिन्न संस्कृतियों के साथ तालमेल बिठा सकेंगे। वसुधैव कुटुम्बकम अगर दीवार पर लिखकर टांगने के लिए है। तो आगे की राह मुश्किल है। वहीं अगर यह अपनाने के लिए है जैसा कि भारत सदियों से करता आया है तो हमारा भविष्य सुरक्षित है।
अगर हम सही मायनों में वैश्विक शक्ति बनने का सपना देख रहे हैं। तो हमें दुनिया भर के लोगों से संवाद के लिए तैयार रहना होगा। ग्लोबल विलेज में कोई भी समाज बिना किसी दूसरी सभ्यता व संस्कृति के संपर्क में आए बिना नहीं रह सकता है। जहां बिना किसी पूर्वाग्रह के दूसरों को समझने व स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा। बेहतर अवसरों की तलाश में दुनिया भर से लोग भारत पहुंचेंगे व भारतीय नई जगहों पर जाएंगे।
यह प्रक्रिया अतीत में जारी रही व भविष्य में जारी रहेगी। समाज की जिम्मेदारी सभ्यताओं व संस्कृतियों के बीच पुल बनने की है। जिससे कि एक समाज दूसरे के करीब आ सके। भीड़ तंत्र बिना सोचे समझे प्रतिक्रिया को तो जन्म दे सकता है। समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। हम कौन सा रास्ता चुनना चाहते हैं यह पूरी तरह हमारे ऊपर निर्भर है। बेहतर यही होगा कि रास्ता वही चुना जाए जो लोगों को करीब लाता हो।
यह संभव नहीं है कि एक तरफ तो हम आदर्शों व मूल्यों का गुणगान करते चलें। वहीं जब अवसर आए तो उन्हें उठाकर कूड़ेदान में फेंक दें। सिर्फ हम दुनिया की ओर नहीं देख रहे हैं। दुनिया भी हमारी ओर देख रही है। अतिथि देवो भव की बात अतिथि नहीं मेजबान पर लागू होती है।
दैनिक जागरण आई नेक्स्ट में दिनांक 9 अप्रेल, 2017 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/1164431/INext-Kanpur/09-04-17#page/8/1
बीते बरसों में अलग-अलग शहरों में अफ्रीकी मूल के लोगों को निशाना बनाने वाली भीड़ को भारतीय उप महाद्ीप व अफ्रीका के बीच सदियों पुराने रिश्ते से कोई लेना-देना नहीं है। उसे शायद यह भी नहीं पता कि अफ्रीका कोई देश नहीं महाद्ीप है। जहां 54 अलग-अलग देश हैं। जिस तरह नए अवसरों की तलाश में इन देशों से बड़ी संख्या में लोग भारत पहुंचते हैं। कुछ उसी तरह बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी भी अवसरों की तलाश में अफ्रीका पहुंचते रहे हैं। रिश्तों की डोर लोगों के हाथ में होती है। जब तक लोग उन रिश्तों की अहमियत नहीं समझते और बने-बनाए पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं निकलते ऐसी घटनाओं पर पूरी तरह रोक शायद ही लग सकेगी। कानून को बेशक अपना काम करना होगा। अगर भीड़ का इंसाफ कानून बन गया तो हमारे लिए खुद को सभ्य समाज कहलाना कठिन होगा।
हर समाज के अपने पूर्वाग्रह होते हैं। जिनसे उसे बाहर निकलना होता है। जैसे कि उत्तर भारत में सुंदर होने का पर्याय गोरा होना है। हमारा समाज ऐसे ढेर सारे पूर्वाग्रहों का शिकार रहा है। उनसे बाहर निकलने की छटपटाहट तो है लेकिन हम उनसे बाहर निकलते नहीं दिख रहे। मूल विषय पर वापस आते हैं।
अफ्रीका को मेनस्ट्रीम मीडिया में कम ही जगह मिलती है। भारत में वहां के निवासी सकारात्मक कम नकारात्मक वजहों से चर्चा में अधिक रहे हैं। पॉपुलर कल्चर ने उनकी अलग छवि गढ़ी है। बहुतेरे लोगों के मन में भी उनकी वही बनी बनाई छवि है। जिसमें सच व झूठ का घालमेल है। जिसमें से दोनों को अलग कर पाना कई बार कठिन होता है। छवि जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती चली जाती है। जिसे तोड़ना जरूरी होने पर भी वह बनी रहती है।
यह कुछ वैसा ही है जैसे कि पश्चिमी देशों ने भारत व भारतीयों की सपेरों के देश वाली छवि गढ़ ली थी। जो मंगल ग्रह पर इसरो का यान पहुंचने व आईटी इंडस्ट्री में भारतीयों की कामयाबी के बाद कमजोर तो हुई है। फिर भी गाहे-बगाहे उनके बर्ताव व मेनस्ट्रीम मीडिया में नजर आ जाती है।
जरूरत इन बनी बनाई छवियों को तोड़ने की है। हाल के वर्षों में भारत के प्रमुख शहरों में अफ्रीका के विभिन्न देशों से बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स पढ़ाई के लिए पहुंचे हैं। जब वह अपने देश लौटेंगे तो भारत व भारतीयों के ब्रांड एंबेसेडर हो सकते हैं। अगर वह अपने साथ सुखद स्मृतियां लेकर जाएंगे तो वहां निवासियों के साथ उन्हें ही बांटेंगे। अगर ऐसी घटनाएं जारी रहती हैं तो इसका ठीक उलट भी हो सकता है। वह भारत की सकारात्मक नहीं नकारात्मक छवि लेकर लौटेंगे।
उस महाद्ीप में लौटेंगे। जिसके देशों के समर्थन से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में परमानेंट सीट का अपना दावा मजबूत बना रहा है। जिनके साथ उसके ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंधों के अलावा आर्थिक व सामरिक हित जुड़े हुए हैं। जहां बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियों की मौजूदगी है। देश जिनके पास चीन इंवेस्टमेंट की चाशनी में लपेटी दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है।
साउथ एशियन मैगजीन फॉर एक्शन एंड रिफ्लेक्शन के मुताबिक अफ्रीकी देश नाइजीरिया में सबसे लोकप्रिय बॉलीवुड फिल्म मदर इंडिया है। फिल्म जिसके गाने व डायलॉग वह आज भी गुनगुनाते व दोहराते हैं। जब वही अकारण भीड़ के हाथों हिंसा का शिकार होते हैं। तो उनके मन में 'मदर इंडिया' की कौन सी छवि बनती होगी। सिर्फ हमारे मन में उनकी छवि नहीं है। वह अपने मन में भी हमारी छवि बनाते हैं। बात जिसे हम अकसर भूल जाते हैं।
भारत सरकार व अफ्रीकी देशों को लोगों को भी करीब लाने की दिशा में काम करना होगा। जिन भारतीय शहरों में बड़ी संख्या में अफ्रीकी देशों के नागरिक रह रहे हैं वहां स्थानीय लोगों व उनके बीच संवाद की पहल करनी होगी। इसके लिए औपचारिक मंच तैयार करना होगा। जिससे कि स्थानीय लोग अफ्रीकी देशों की संस्कृति व सभ्यता से परिचित हो सकें। उन्हें भारत व अफ्रीका के परंपरागत रिश्तों के बारे में बताना होगा। उन बनी बनाई छवियों को तोड़ना होगा। जो दूरियां बढ़ाती हैं। किन्हीं दो देशों, महाद्ीपों व सभ्यताओं के बीच रिश्तों की डोर लोगों के हाथ में होती है। अफ्रीका में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहे चीन को इस बात का बखूबी अहसास हो रहा है।
ग्लोबल इकॉनमी में वही आगे बढ़ेंगे जो दुनिया भर की विभिन्न संस्कृतियों के साथ तालमेल बिठा सकेंगे। वसुधैव कुटुम्बकम अगर दीवार पर लिखकर टांगने के लिए है। तो आगे की राह मुश्किल है। वहीं अगर यह अपनाने के लिए है जैसा कि भारत सदियों से करता आया है तो हमारा भविष्य सुरक्षित है।
अगर हम सही मायनों में वैश्विक शक्ति बनने का सपना देख रहे हैं। तो हमें दुनिया भर के लोगों से संवाद के लिए तैयार रहना होगा। ग्लोबल विलेज में कोई भी समाज बिना किसी दूसरी सभ्यता व संस्कृति के संपर्क में आए बिना नहीं रह सकता है। जहां बिना किसी पूर्वाग्रह के दूसरों को समझने व स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा। बेहतर अवसरों की तलाश में दुनिया भर से लोग भारत पहुंचेंगे व भारतीय नई जगहों पर जाएंगे।
यह प्रक्रिया अतीत में जारी रही व भविष्य में जारी रहेगी। समाज की जिम्मेदारी सभ्यताओं व संस्कृतियों के बीच पुल बनने की है। जिससे कि एक समाज दूसरे के करीब आ सके। भीड़ तंत्र बिना सोचे समझे प्रतिक्रिया को तो जन्म दे सकता है। समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। हम कौन सा रास्ता चुनना चाहते हैं यह पूरी तरह हमारे ऊपर निर्भर है। बेहतर यही होगा कि रास्ता वही चुना जाए जो लोगों को करीब लाता हो।
यह संभव नहीं है कि एक तरफ तो हम आदर्शों व मूल्यों का गुणगान करते चलें। वहीं जब अवसर आए तो उन्हें उठाकर कूड़ेदान में फेंक दें। सिर्फ हम दुनिया की ओर नहीं देख रहे हैं। दुनिया भी हमारी ओर देख रही है। अतिथि देवो भव की बात अतिथि नहीं मेजबान पर लागू होती है।
दैनिक जागरण आई नेक्स्ट में दिनांक 9 अप्रेल, 2017 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/1164431/INext-Kanpur/09-04-17#page/8/1
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