इन दिनों नया मुहावरा चलन में है 'हजार का नोट हो जाना' मतलब किसी काम का न होना। जिनकी जेब में 50 या 100 के नोट नहीं हैं। वह इन दिनों ऐसा ही फील कर रहे हैं। बैंकों के बाहर लंबी कतार व एटीएम पर नो कैश की तख्ती मुंह चिढ़ाती सी लगती है। वहीं किसी को काले धन को गोरा बनाने की फिक्र है।
हमारे पुरखों ने जब कागज के नोट के बारे में सोचा होगा। उनका इरादा किसी मुश्किल को हल करने का रहा होगा। वे मुश्किल बन जाएंगे इस बात का इल्म नहीं रहा होगा। यही वजह है कि दुनिया भर में कागज के नोट इतिहास बन रहे हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं ही नहीं विकासशील देशों में भी उनका भविष्य खतरे में नजर आ रहा है।
फिलहाल भारत में हालात अलग हैं। कब तक यह कोई कह नहीं सकता। अगर हमारा देश कैशलेस इकोनॉमी होता तो शायद हमें 500-1000 के नोट बंद होने का पता ही नहीं चलता। हम दुनिया में सबसे ज्यादा नकद लेनदेन करने वाले देशों में शुमार हैं। हमारे यहां 98 प्रतिशत लेनदेन नकद होता है। जिसका मूल्य कुल लेनदेन का 68 प्रतिशत है। यह प्राइसवाटरहाउस कूपर्स की 2015 की रिपोर्ट कहती है। जबकि चीन में यह प्रतिशत 90 व 45 है। वहीं अमरीका में 55 व 14 प्रतिशत है।
मजे की बात यह है कि हमारे यहां डेबिट कार्ड का इस्तेमाल भी नकद के लिए ही होता है। आरबीआई की मार्च 2016 की रिपोर्ट ऐसे ही कई तथ्यों से परदा हटाती है। हमारे यहां डेबिट कार्ड से होने वाले लेनदेन में से 12 प्रतिशत ही सीधे खरीदारी के लिए होता है। यानी जिसका उपयोग प्वाइंट ऑफ सेल (पीओएस) टर्मिनल पर किया जाता है। बाकी एटीएम से कैश निकालने के लिए होते हैं। कुल मूल्य में इनकी हिस्सेदारी महज 6 प्रतिशत है। मायने साफ हैं कि प्लास्टिक मनी आने के बावजूद कैशलेस इकोनॉमी यहां दूर की कौड़ी है। वैसे दुनिया भर की नजर 500 व 1000 के नोट बंद होने के बाद भारत में नकद लेनदेन पर पड़ने वाले असर पर है।
दुनिया के साथ हम कदम से कदम मिलाकर चलेंगे या नहीं आने वाले दिनों में पता चल जाएगा। जिन देशों में कागज के नोट से लेनदेन इतिहास का हिस्सा बन रहा है। उनमें स्वीडन सबसे ऊपर है. जहां बैंकों में नकद लेनदेन न के बराबर रह गया है। बैंक से लेकर बस, ठेले खोमचे वाले यहां तक कि चर्च भी प्लास्टिक मनी या वर्चुअल पेमेंट स्वीकार कर रहे हैं। इतना ही नहीं वर्चुअल मनी के इस्तेमाल का असर बैंक डकैती की घटनाओं पर भी पड़ा है। डकैतों के लिए बैंकों से ले जाने को कैश ही नहीं बचा है।
वहीं कनाडा ने भी लंबे समय से नए नोट नहीं छापे हैं. पुराने से ही काम चल रहा है। वहां लोग नोटों की बजाय मोबाइल वैलेट से लेनदेन आसान समझते हैं। कीनिया जैसे अफ्रीकी देशों में मोबाइल इंटरनेट की पहुंच के चलते नकद लेनदेन तेजी से कम हो रहे हैं। अगर इसी तरह दुनिया भर के देश कैशलेस इकोनॉमी की राह पर दौड़ेंगे तो वक्त दूर नहीं जब कागज के नोट सेल्फी खिंचाने के ही काम आएंगे।
वैसे हमारे पुरखों ने कागज के नोट के बारे में जिस मुश्किल को हल करने के इरादे से सोचा उसके बारे में जान लेना बेहतर रहेगा। मामला 7वीं सदी का है। चीन में तांग वंश का शासन था. व्यापार तेजी से बढ़ रहा था। तब तांबे के सिक्के चलन में थे। सिक्कों के वजन से परेशान व्यापारी मुद्रा के विकल्प ढ़ूढ़ने लगे। बड़े सौदे करने में सिक्कों का वजन परेशानी पैदा कर रहा था। आखिर उन्हें समझ आया कि बड़े सौदों के लिए कागज सबसे बेहतर विकल्प होगा। कहते हैं पहले पहल कागज का मुद्रा के रूप में चलन तभी शुरू हुआ।
हालांकि प्रचलन में वह 11वीं सदी में सांग वंश के शासन के दौरान आई। फिर कागज के नोट धड़ल्ले से मंगोल साम्राज्य में चलने लगे. मंगोल शासक कुबलई खान ने अपनी मुद्रा को नाम दिया चाओ। अभी यूरोप को कागज के नोट के बारे में कुछ पता नहीं था. कागज के नोट से यूरोप का पहला परिचय 13वीं सदी में हुआ। चीन के लगभग 500 बरस बाद. यह काम किया समुद्री यात्री व व्यापारी मार्को पोलो ने।
वहीं भारत में 18वीं सदी तक चांदी व सोने के सिक्के चलन में थे. यूरोपियन व्यापारियों के आगमन के साथ कागज के नोट यहां पहुंचे। सबसे पहले जनरल बैंक ऑफ बंगला एंड बहार (1773-75) ने कागज के नोट जारी किए। इसके बाद द बैंक ऑफ हिंदोस्तान (1770-1832) ने कागज के नोट जारी किए। फिर बैंक ऑफ बंगाल, बैंक ऑफ बांबे व बैंक ऑफ मद्रास ने नोट जारी किए। 1861 में पहली पेपर करेंसी एक्ट आया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने नोट जारी किए. 500 का नोट पहली बार 1907 में आया व 1000 का 1909 में।
अब जबकि नकद लेनदेन अर्थव्यवस्था में हम सबके लिए मुश्किल का सबब बन रहा है। हम सबके लिए नए तौर तरीके अपनाने का वक्त आ गया लगता है। प्रयास हम सभी को मिलकर करने होंगे। कैशलेस इकोनॉमी की पहली सीढ़ी पार करने का यह सही समय है।
आई नेक्स्ट में दिनांक 13 नवम्बर, 2016 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/999657/INext-Kanpur/13-11-16#page/8/2
हमारे पुरखों ने जब कागज के नोट के बारे में सोचा होगा। उनका इरादा किसी मुश्किल को हल करने का रहा होगा। वे मुश्किल बन जाएंगे इस बात का इल्म नहीं रहा होगा। यही वजह है कि दुनिया भर में कागज के नोट इतिहास बन रहे हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं ही नहीं विकासशील देशों में भी उनका भविष्य खतरे में नजर आ रहा है।
फिलहाल भारत में हालात अलग हैं। कब तक यह कोई कह नहीं सकता। अगर हमारा देश कैशलेस इकोनॉमी होता तो शायद हमें 500-1000 के नोट बंद होने का पता ही नहीं चलता। हम दुनिया में सबसे ज्यादा नकद लेनदेन करने वाले देशों में शुमार हैं। हमारे यहां 98 प्रतिशत लेनदेन नकद होता है। जिसका मूल्य कुल लेनदेन का 68 प्रतिशत है। यह प्राइसवाटरहाउस कूपर्स की 2015 की रिपोर्ट कहती है। जबकि चीन में यह प्रतिशत 90 व 45 है। वहीं अमरीका में 55 व 14 प्रतिशत है।
मजे की बात यह है कि हमारे यहां डेबिट कार्ड का इस्तेमाल भी नकद के लिए ही होता है। आरबीआई की मार्च 2016 की रिपोर्ट ऐसे ही कई तथ्यों से परदा हटाती है। हमारे यहां डेबिट कार्ड से होने वाले लेनदेन में से 12 प्रतिशत ही सीधे खरीदारी के लिए होता है। यानी जिसका उपयोग प्वाइंट ऑफ सेल (पीओएस) टर्मिनल पर किया जाता है। बाकी एटीएम से कैश निकालने के लिए होते हैं। कुल मूल्य में इनकी हिस्सेदारी महज 6 प्रतिशत है। मायने साफ हैं कि प्लास्टिक मनी आने के बावजूद कैशलेस इकोनॉमी यहां दूर की कौड़ी है। वैसे दुनिया भर की नजर 500 व 1000 के नोट बंद होने के बाद भारत में नकद लेनदेन पर पड़ने वाले असर पर है।
दुनिया के साथ हम कदम से कदम मिलाकर चलेंगे या नहीं आने वाले दिनों में पता चल जाएगा। जिन देशों में कागज के नोट से लेनदेन इतिहास का हिस्सा बन रहा है। उनमें स्वीडन सबसे ऊपर है. जहां बैंकों में नकद लेनदेन न के बराबर रह गया है। बैंक से लेकर बस, ठेले खोमचे वाले यहां तक कि चर्च भी प्लास्टिक मनी या वर्चुअल पेमेंट स्वीकार कर रहे हैं। इतना ही नहीं वर्चुअल मनी के इस्तेमाल का असर बैंक डकैती की घटनाओं पर भी पड़ा है। डकैतों के लिए बैंकों से ले जाने को कैश ही नहीं बचा है।
वहीं कनाडा ने भी लंबे समय से नए नोट नहीं छापे हैं. पुराने से ही काम चल रहा है। वहां लोग नोटों की बजाय मोबाइल वैलेट से लेनदेन आसान समझते हैं। कीनिया जैसे अफ्रीकी देशों में मोबाइल इंटरनेट की पहुंच के चलते नकद लेनदेन तेजी से कम हो रहे हैं। अगर इसी तरह दुनिया भर के देश कैशलेस इकोनॉमी की राह पर दौड़ेंगे तो वक्त दूर नहीं जब कागज के नोट सेल्फी खिंचाने के ही काम आएंगे।
वैसे हमारे पुरखों ने कागज के नोट के बारे में जिस मुश्किल को हल करने के इरादे से सोचा उसके बारे में जान लेना बेहतर रहेगा। मामला 7वीं सदी का है। चीन में तांग वंश का शासन था. व्यापार तेजी से बढ़ रहा था। तब तांबे के सिक्के चलन में थे। सिक्कों के वजन से परेशान व्यापारी मुद्रा के विकल्प ढ़ूढ़ने लगे। बड़े सौदे करने में सिक्कों का वजन परेशानी पैदा कर रहा था। आखिर उन्हें समझ आया कि बड़े सौदों के लिए कागज सबसे बेहतर विकल्प होगा। कहते हैं पहले पहल कागज का मुद्रा के रूप में चलन तभी शुरू हुआ।
हालांकि प्रचलन में वह 11वीं सदी में सांग वंश के शासन के दौरान आई। फिर कागज के नोट धड़ल्ले से मंगोल साम्राज्य में चलने लगे. मंगोल शासक कुबलई खान ने अपनी मुद्रा को नाम दिया चाओ। अभी यूरोप को कागज के नोट के बारे में कुछ पता नहीं था. कागज के नोट से यूरोप का पहला परिचय 13वीं सदी में हुआ। चीन के लगभग 500 बरस बाद. यह काम किया समुद्री यात्री व व्यापारी मार्को पोलो ने।
वहीं भारत में 18वीं सदी तक चांदी व सोने के सिक्के चलन में थे. यूरोपियन व्यापारियों के आगमन के साथ कागज के नोट यहां पहुंचे। सबसे पहले जनरल बैंक ऑफ बंगला एंड बहार (1773-75) ने कागज के नोट जारी किए। इसके बाद द बैंक ऑफ हिंदोस्तान (1770-1832) ने कागज के नोट जारी किए। फिर बैंक ऑफ बंगाल, बैंक ऑफ बांबे व बैंक ऑफ मद्रास ने नोट जारी किए। 1861 में पहली पेपर करेंसी एक्ट आया। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने नोट जारी किए. 500 का नोट पहली बार 1907 में आया व 1000 का 1909 में।
अब जबकि नकद लेनदेन अर्थव्यवस्था में हम सबके लिए मुश्किल का सबब बन रहा है। हम सबके लिए नए तौर तरीके अपनाने का वक्त आ गया लगता है। प्रयास हम सभी को मिलकर करने होंगे। कैशलेस इकोनॉमी की पहली सीढ़ी पार करने का यह सही समय है।
आई नेक्स्ट में दिनांक 13 नवम्बर, 2016 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/999657/INext-Kanpur/13-11-16#page/8/2
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