इन दिनों जंगलराज ट्रेंड में है। जब जहां जिसका मन आता है, उसका गान शुरू हो जाता है। लोग अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से जंगल भी खोज लाते हैं और जंगलराज भी। सिर्फ राज्य बदल जाते हैं। कभी बिहार, कभी पश्चिम बंगाल, कभी झारखंड तो कभी उत्तर प्रदेश। अपनी सुविधानुसार नामों में बदलाव होता रहता है।
अब आप ही बताइए बिहार में जंगलराज कैसे हो सकता है। जब जंगल ही नहीं है। राज्य के कुल क्षेत्रफल में से सिर्फ सात प्रतिशत पर वन हैं। उत्तर प्रदेश में भी हाल कुछ ऐसा ही है। दिल्ली, हरियाणा व पंजाब में तो जंगलराज की आशंका और भी कम है। दिल्ली-पंजाब में वन प्रतिशत छह तो हरियाणा में चार ही है। इसीलिए दिल्ली को सांस लेने के लिए ऑड-इवेन जैसे फॉर्मूलों की जरूरत पड़ती रहती है।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जमीन पर जंगल भले ही कम हों लेकिन उन्हें लेकर ढेर सारी योजनाएं हवा में तैरती और फाइलों में दौड़ती रहती हैं। वैसे अगर जंगल या जंगलराज किसी इंसान का नाम होता तो हकीकत देखकर पता नहीं कितना ह्यूमिलिएटिंग फील करता। इसकी कल्पना ही की जा सकती है। बहरहाल आगे बढ़ते हैं।
अब अगर बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में जंगलराज नहीं है तो कहां है? गुजरात व राजस्थान में भी जंगल 10-10 प्रतिशत जमीन पर ही हैं। अगर उसका पता नहीं मिला तो रोजाना उसके नाम की माला जपने वाले बैठे-ठाले क्या करेंगे।
अगर आंकड़ों पर यकीन करें तो जंगलराज खोजने पर कहीं मिलेगा तो वह नॉर्थ ईस्ट में हो सकता है। जहां जंगल और जानवर दोनों सुरक्षित महसूस करते होंगे। बाकी मनुष्यों की पहुंच तो वहां भी है। वैसे आजकल इंसानों के बीच इंसान ही कम सुरक्षित अनुभव करते हैं।
चलिए अपनी बात पर वापस आते हैं। नॉर्थ ईस्ट के आठ राज्यों में से छह में वनों का क्षेत्रफल उनके कुल भूभाग का 50 प्रतिशत से अधिक है। सिक्किम में तो यह आंकड़ा 82 प्रतिशत पर है। मिजोरम व मणिपुर में क्रमश: 79 व 78 प्रतिशत जमीन पर जंगल है। अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा में 60 प्रतिशत या उससे अधिक तो नागालैंड में 56 प्रतिशत है। इलाके के सबसे बड़े राज्य असम में भी 34 प्रतिशत भूभाग पर वन हैं। तो फिर जंगलराज कहां है?
वैसे वन संपदा के मामले में पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड भी समृद्ध हैं। जहां कुल भूमि के क्रमश: 67 व 65 प्रतिशत पर वन हैं। अगर केंद्र शासित प्रदेश की बात करें तो अंडमान व निकोबार द्वीप समूह का नाम सबसे ऊपर आता है। जहां 87 प्रतिशत भूभाग पर वन हैं।
अब तस्वीर के दूसरे पहलू पर नजर डालते हैं। अगर पूरे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों के क्षेत्रफल को मिला दिया जाए तो भी वह महाराष्ट्र के तीन चौथाई के ही बराबर होगा। इसी तरह हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड का कुल भूभाग देश के साढ़े तीन प्रतिशत से भी कम है। यह वह राज्य हैं जहां वन अभी भी बचे हुए हैं।
असल समस्या यह है कि ज्यादातर बड़े राज्यों में जंगलों की कुल भूमि चिंताजनक रूप से कम है। मजे की बात यह है कि जीडीपी के मामले में टॉप पर आने वाले पांच राज्य वनों की बात आते ही लिस्ट में सबसे नीचे चले जाते हैं। वहीं जीडीपी में नीचे वाले सबसे ऊपर आ जाते हैं। यह स्थिति पर्यावरण संतुलन के लिए ठीक नहीं है।
आजादी के बाद से देश में आबादी के बढ़ते दबाव व तेज आर्थिक विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चलते जंगल कम ही हुए हैं। भारत में सघन व औसत घनत्व वाले वन कुल वनों का 12.20 प्रतिशत ही हैं। इसमें भी सघन वनों की हिस्सेदारी 2.61 प्रतिशत ही है।
हम भूल जाते हैं कि जंगल सिर्फ शेर, चीता या भालू नहीं है। वह अपनी रिलीज के 50 दिनों के भीतर देश में बॉक्स ऑफिस पर 183 करोड़ रुपए का व्यवसाय करने वाली हॉलीवुड फिल्म जंगल बुक में नजर आने वाले जंगल से भी इतर है। यह वो हैं जिनकी वजह से भारत की गिनती दुनिया के 17 मेगाडाइवर्स या विशालविविधता वाले देशों में होती है।
देश जो आर्थिक समृद्धि के पैमाने पर किसी भी पायदान पर खड़े हों लेकिन प्रकृति से मिले उपहारों के मामले में शीर्ष पर हैं। उपहार जो बिना मोल के होते हुए भी अनमोल हैं। हमारे देश के जंगल कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कामरूप तक तक दुनिया भर की बायो डाइवर्सिटी को अपने में समेटे हुए हैं।
प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से हाल के बरसों में जल, जंगल, जमीन को लेकर टकराव भी बढ़ा है। स्थानीय समुदाय जिनकी आजीविका वनों पर निर्भर है उन्होंने भी मोर्चा खोला है। कई राज्यों में अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए आदिवासी समुदाय भी आगे आया है। ओडिसा की नियामगिरी पहाड़ियों का मामला अभी ताजा है। इन्हें पवित्र मानने वाली स्थानीय जनजाति ने न सिर्फ इन्हें खनन के लिए देने का विरोध किया बल्कि सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई भी जीती।
हिमाचल प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं। स्थानीय समुदायों ने कई जगहों पर वन और विकास के बीच जंगलों को प्राथमिकता दी है। असल जंगलराज स्थानीय समुदायों की असहमति व दूरगामी परिणामों की चिंता किए बिना प्रकृति पर आरा चलाते जाना है।
कहीं ऐसा न हो कि जंगल सिर्फ कहानियों में रह जाएं। यह सही समय है जब जंगलराज से ज्यादा जंगलों की चिंता की जानी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तभी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से हम निपट सकेंगे। कभी धरती पर जंगलों का राज हुआ करता था। अगर हम उनका राज वापस नहीं कर सकते तो कम से कम जो बचा है उसका ख्याल तो रख सकते हैं।
आई नेक्स्ट में दिनांक 29 मई, 2016 को प्रकाशित
http://inextepaper।jagran।com/824187/INext-Kanpur/29-05-16#page/12/1
अब आप ही बताइए बिहार में जंगलराज कैसे हो सकता है। जब जंगल ही नहीं है। राज्य के कुल क्षेत्रफल में से सिर्फ सात प्रतिशत पर वन हैं। उत्तर प्रदेश में भी हाल कुछ ऐसा ही है। दिल्ली, हरियाणा व पंजाब में तो जंगलराज की आशंका और भी कम है। दिल्ली-पंजाब में वन प्रतिशत छह तो हरियाणा में चार ही है। इसीलिए दिल्ली को सांस लेने के लिए ऑड-इवेन जैसे फॉर्मूलों की जरूरत पड़ती रहती है।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जमीन पर जंगल भले ही कम हों लेकिन उन्हें लेकर ढेर सारी योजनाएं हवा में तैरती और फाइलों में दौड़ती रहती हैं। वैसे अगर जंगल या जंगलराज किसी इंसान का नाम होता तो हकीकत देखकर पता नहीं कितना ह्यूमिलिएटिंग फील करता। इसकी कल्पना ही की जा सकती है। बहरहाल आगे बढ़ते हैं।
अब अगर बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में जंगलराज नहीं है तो कहां है? गुजरात व राजस्थान में भी जंगल 10-10 प्रतिशत जमीन पर ही हैं। अगर उसका पता नहीं मिला तो रोजाना उसके नाम की माला जपने वाले बैठे-ठाले क्या करेंगे।
अगर आंकड़ों पर यकीन करें तो जंगलराज खोजने पर कहीं मिलेगा तो वह नॉर्थ ईस्ट में हो सकता है। जहां जंगल और जानवर दोनों सुरक्षित महसूस करते होंगे। बाकी मनुष्यों की पहुंच तो वहां भी है। वैसे आजकल इंसानों के बीच इंसान ही कम सुरक्षित अनुभव करते हैं।
चलिए अपनी बात पर वापस आते हैं। नॉर्थ ईस्ट के आठ राज्यों में से छह में वनों का क्षेत्रफल उनके कुल भूभाग का 50 प्रतिशत से अधिक है। सिक्किम में तो यह आंकड़ा 82 प्रतिशत पर है। मिजोरम व मणिपुर में क्रमश: 79 व 78 प्रतिशत जमीन पर जंगल है। अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा में 60 प्रतिशत या उससे अधिक तो नागालैंड में 56 प्रतिशत है। इलाके के सबसे बड़े राज्य असम में भी 34 प्रतिशत भूभाग पर वन हैं। तो फिर जंगलराज कहां है?
वैसे वन संपदा के मामले में पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड भी समृद्ध हैं। जहां कुल भूमि के क्रमश: 67 व 65 प्रतिशत पर वन हैं। अगर केंद्र शासित प्रदेश की बात करें तो अंडमान व निकोबार द्वीप समूह का नाम सबसे ऊपर आता है। जहां 87 प्रतिशत भूभाग पर वन हैं।
अब तस्वीर के दूसरे पहलू पर नजर डालते हैं। अगर पूरे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों के क्षेत्रफल को मिला दिया जाए तो भी वह महाराष्ट्र के तीन चौथाई के ही बराबर होगा। इसी तरह हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड का कुल भूभाग देश के साढ़े तीन प्रतिशत से भी कम है। यह वह राज्य हैं जहां वन अभी भी बचे हुए हैं।
असल समस्या यह है कि ज्यादातर बड़े राज्यों में जंगलों की कुल भूमि चिंताजनक रूप से कम है। मजे की बात यह है कि जीडीपी के मामले में टॉप पर आने वाले पांच राज्य वनों की बात आते ही लिस्ट में सबसे नीचे चले जाते हैं। वहीं जीडीपी में नीचे वाले सबसे ऊपर आ जाते हैं। यह स्थिति पर्यावरण संतुलन के लिए ठीक नहीं है।
आजादी के बाद से देश में आबादी के बढ़ते दबाव व तेज आर्थिक विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चलते जंगल कम ही हुए हैं। भारत में सघन व औसत घनत्व वाले वन कुल वनों का 12.20 प्रतिशत ही हैं। इसमें भी सघन वनों की हिस्सेदारी 2.61 प्रतिशत ही है।
हम भूल जाते हैं कि जंगल सिर्फ शेर, चीता या भालू नहीं है। वह अपनी रिलीज के 50 दिनों के भीतर देश में बॉक्स ऑफिस पर 183 करोड़ रुपए का व्यवसाय करने वाली हॉलीवुड फिल्म जंगल बुक में नजर आने वाले जंगल से भी इतर है। यह वो हैं जिनकी वजह से भारत की गिनती दुनिया के 17 मेगाडाइवर्स या विशालविविधता वाले देशों में होती है।
देश जो आर्थिक समृद्धि के पैमाने पर किसी भी पायदान पर खड़े हों लेकिन प्रकृति से मिले उपहारों के मामले में शीर्ष पर हैं। उपहार जो बिना मोल के होते हुए भी अनमोल हैं। हमारे देश के जंगल कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कामरूप तक तक दुनिया भर की बायो डाइवर्सिटी को अपने में समेटे हुए हैं।
प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से हाल के बरसों में जल, जंगल, जमीन को लेकर टकराव भी बढ़ा है। स्थानीय समुदाय जिनकी आजीविका वनों पर निर्भर है उन्होंने भी मोर्चा खोला है। कई राज्यों में अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए आदिवासी समुदाय भी आगे आया है। ओडिसा की नियामगिरी पहाड़ियों का मामला अभी ताजा है। इन्हें पवित्र मानने वाली स्थानीय जनजाति ने न सिर्फ इन्हें खनन के लिए देने का विरोध किया बल्कि सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई भी जीती।
हिमाचल प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं। स्थानीय समुदायों ने कई जगहों पर वन और विकास के बीच जंगलों को प्राथमिकता दी है। असल जंगलराज स्थानीय समुदायों की असहमति व दूरगामी परिणामों की चिंता किए बिना प्रकृति पर आरा चलाते जाना है।
कहीं ऐसा न हो कि जंगल सिर्फ कहानियों में रह जाएं। यह सही समय है जब जंगलराज से ज्यादा जंगलों की चिंता की जानी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तभी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से हम निपट सकेंगे। कभी धरती पर जंगलों का राज हुआ करता था। अगर हम उनका राज वापस नहीं कर सकते तो कम से कम जो बचा है उसका ख्याल तो रख सकते हैं।
आई नेक्स्ट में दिनांक 29 मई, 2016 को प्रकाशित
http://inextepaper।jagran।com/824187/INext-Kanpur/29-05-16#page/12/1
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