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ट्रेन के डिब्‍बे में चढ़ने तो दीजिए

मुंबई की पहचान बन चुकी काले और पीले रंग वाली टैक्सियों के ड्राइवर पिछले दिनों हड़ताल पर थे. वजह जानकर आपको हैरानी होगी. वह मोबाइल एप आधारित उबर, ओला, मेरू कैब जैसी टैक्सी सेवाओं पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं. देश में ऑनलाइन सेवाओं का दायरा बढ़ने के साथ ऑनलाइन व ऑफलाइन सेवाओं के बीच टकराव भी बढ़ रहा है.

यह पहला वाकया नहीं है. पिछले साल दिसम्बर में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चर्चित किताब ‘द ड्रामैटिक डिकेड: द इंदिरा गांधी इयर्स’ के साथ भी कुछ ऐसा ही हो चुका है. पब्लिशर के पहले 21 दिनों तक किताब की बिक्री सिर्फ ऑनलाइन करने का फैसला बुक स्टोर्स को रास नहीं आया था. विरोध में उन्होंने बायकॉट तक की धमकी दे डाली थी. याद दिलाते चलें कि ई-कॉमर्स के वर्तमान दिग्गजों ने शुरुआत ऑनलाइन किताबें बेचने से ही की थी.

यह जंग सिर्फ किताबों और टैक्सियों तक सीमित नहीं रह गई है. ऐसा भी नहीं है कि हर जगह ऑफलाइन को हार का सामना करना पड़ा हो. पिछले साल फेस्टिव सीजन से ठीक पहले मोबाइल रिटेलर्स के दबाव में सैमसंग ने स्मार्टफोन के अपने 48 मॉडल ऑनलाइन न बेचने का फैसला लिया था. यह फैसला ऐसे समय में आया था जब एक के बाद एक कंपनियां स्मार्टफोन के नए मॉडल ऑनलाइन लांच कर रही थीं. सिलसिला जो अभी भी जारी है.

नेट न्यूट्रैलिटी का विरोध कर रहे टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स भी ओवर द टॉप (ओटीटी) सर्विसेज के चलते आय में कमी का रोना रो रहे हैं. वह व्हाट्सएप, वाइबर, स्काइप जैसी सेवाओं के लिए ज्यादा कीमत वसूलना चाहते हैं. जबकि नेट न्यूट्रैलिटी का सिद्धांत कहता है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियों को इंटरनेट पर हर तरह के डाटा को एक जैसा दर्जा देना चाहिए.

टैक्सियों से लेकर टेलीकॉम तक लगभग हर जगह ऑनलाइन व ऑफलाइन एक दूसरे के आमने-सामने नजर आ रहे हैं. इसकी तुलना किसी यात्रियों से भरे ट्रेन के जनरल डिब्बे में नए यात्री के घुसने पर सीट को लेकर होने वाले झगड़े से की जा सकती है. पुराने यात्री जगह देना नहीं चाहते जबकि नया यात्री अपने लिए जगह बनाना चाहता है.

इंडिया में ऑनलाइन सेवाओं के साथ भी कुछ ऐसा ही है वह अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं.  साल के आखिर तक देश में 4जी सेवाओं के विस्तार के साथ इसमें तेजी ही आएगी. मतलब साफ है, पहले से बैठे और नए आने वाले यात्रियों के बीच झगड़ा तय है. इसमें मुश्किल सिर्फ यह है कि पुराने यात्री अगर नए यात्री को ट्रेन में ही न चढने दें तो क्यां होगा. सरकार व नियामकों को यही सुनिश्चित करना है कि ऐसा न हो.

इस सबके बीच हम और आप कहां खड़े हैं. आमतौर पर देखा गया है कि कांपटीशन कंज्यूमर के लिए फायदेमंद ही साबित होता आया है. अब मुंबई का ही उदाहरण लेते हैं. आम दिनों में लोग मोबाइल एप आधारित एक टैक्सी सेवा से 750 रुपए खर्च कर 51 किमी की दूरी तय कर सकते हैं. बहरहाल टैक्सी स्ट्राइक वाले दिन उतना ही पैसा खर्च कर सिर्फ 5 किमी की दूरी तय की जा सकती थी. ऐसा हुआ डायनमिक प्राइसिंग के चलते, जैसे-जैसे डिमांड व सप्लाई के बीच अंतर बढ़ता गया दाम भी बढ़ते गए.

जिन एंट्री बैरियर को पारकर परंपरागत ऑफलाइन सेवाओं ने अपने लिए जगह बनाई वैसे ही बैरियर वह ऑनलाइन सेवाओं के रास्ते में भी देखना चाहती हैं. जबकि इन दोनों के बीच खड़ा कंज्यूमर अपनी जिंदगी को आसान होते हुए देखना चाहता है. वह कोई भी हो सकता है. ऑनलाइन बिल जमा करने वाला कोई शहरी या फिर अपनी जमीन के कागज डाउनलोड करता कोई ग्रामीण.

इंडिया में इंटरनेट की सीमित पहुंच और बड़ी आबादी के चलते ऑनलाइन व ऑफलाइन दोनों ही तरह की सेवाओं के लिए पर्याप्त जगह मौजूद है. जब ट्रेन के डिब्बें में पर्याप्त जगह है तो फिर किसी को चढ़ने से नहीं रोका जाना चाहिए. इस बात से तो आप भी सहमत होंगे.

आई नेक्‍स्‍ट में दिनांक 27 जून, 2015 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/529970/INext-Kanpur/27-06-15#page/12/1  

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