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एक किसान की मौत, दिल्‍ली में...

अब दिल्‍ली ही देश है. यहां एक किसान की मौत ने राजनीति की जमीन हिला दी. वरना गांव में किसानों की मौत महज एक आंकड़ा भर है. दिल्‍ली में खबर है, जो फेसबुक, टि्वटर, लिंक्‍डइन पर हैशटैग बन जाती है. गजेंद्र की मौत से पता चल गया है कि भारत के किसानों की आवाज नक्‍कारखाने में तूती की तरह है. यह आवाज तभी सुनाई देती है, जब राजनीति के तवे पर उसे चढ़ाया जाता है या फिर कैमरे पर दिखाया जाता है. वैसे इस देश में किसानों की आत्‍महत्‍या कोई नई बात नहीं है.

भारत में हर रोज 46 'गजेंद्र' (किसान) किसी न किसी वजह से मौत को गले लगाते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में 1995 से 2013 के बीच 2,96,438  किसानों ने आत्‍महत्‍या की. हाल में आई आपदा के बाद किसानों की मौत का सिलसिला जारी है. किसानों की बद्तर हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में आत्‍महत्‍या करने वाले 100 लोगों में से 11 किसान होते हैं. किसी किसान की मौत पर न तो कैंडल मार्च निकलते हैं, न उनके लिए इंसाफ या नीतियां बदलने की मांग होती है. गजेंद्र की मौत की वजह बताने में लगे राजनीतिज्ञ, आज तक तीन लाख किसानों की आत्‍महत्‍या की वजह नहीं खोज सकें हैं. यह हाल तब है, जब 16वीं लोकसभा में चुनकर आने वाले 187 सांसदों का पेशा कृषि है.

कृषि एक ऐसा पेशा है, जिसमें लगे परिवार की औसत आमदनी महज 6,426 रुपए महीना है और इसमें से आधे से भी कम खेती से आती है. इस देश के 65 प्रतिशत किसानों के पास आमदनी और खर्च में संतुलन बैठाने के लिए जरूरी एक हेक्‍टेयर से भी कम जमीन है. 90 प्रतिशत किसाने दो हेक्‍टेयर से कम जमीन में गुजारा करते हैं. 50 प्रतिशत किसान परिवारों के सिर पर कर्ज का बोझ है. इनमें से हर किसी पर 47,000 रुपए का कर्ज लदा है. यह आंकड़े नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के के हैं. गजेंद्र की मौत पर गेंद एक पाले से दूसरे पाले में उछाल रहे लोग असली सवालों से बचकर निकल जाना चाहते हैं.

वे चाहते हैं कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर दिया जाए, ताकि असली सवाल से लोगों का ध्‍यान भटकाया जा सके. लोग इन आंकड़ों पर ध्‍यान ही न दें दें और वे साफ सीधे तौर पर बच जाएं. भारत का किसान दुनिया की एक बटा छह आबादी का पेट भरता है. यह कैसा अन्‍न्‍दाता है, जिसके घर में ही अन्‍न की गारंटी नहीं है? दुनिया में कपास (कॉटन) का उत्‍पादन करने वाला दूसरा सबसे बड़ा मुल्‍क है, भारत. उसे उपजाने वाला किसान अपने बच्‍चों को नए कपड़ों में देखने के लिए तरस जाता है. किसान वोट बैंक है, भले ही उसका बैंक खाता खाली हो. शहरों में चिंता महंगाई बढ़ने की ज्‍यादा है और आत्‍महत्‍या कर रहे किसानों की कम है.

भूमि के आधार पर मुआवजा बांटने वाली सरकारें यह भूल जाती हैं कि देश में भूमिहीन कृषक भी होते हैं, जिनकी रोजी-रोटी भी खेती से ही चलती है. बैंक कर्ज पर ब्‍याज माफी का झुनझुना थमाने वाले यह याद नहीं रख पाते कि देश में आधे से भी कम किसान बैंक के भरोसे हैं. यहां तक कि चौथाई तो साहुकार के कर्जदार हैं. ऐसे में कर्ज माफी भी सभी किसानों तक नहीं पहुंच पाती. सरकारों का मुआवजा देने का तरीका भी ऐसा है कि यह किसान के जख्‍मों पर मरहम का काम नहीं करता, उल्‍टे भीख की तरह मिलता है.

याद रखिए, अपने हाथ कोई नहीं फैलाना चाहता. किसान को भी भीख नहीं चाहिए, उन्‍हें तो सिस्‍टम और समाज से सम्‍मान और सहयोग की दरकार है. उसे जब एमएस स्‍वामीनाथन या वर्गीज कुरियन का साथ मिलता है, तो वह देश में हरित क्रांति (ग्रीन रिवॉल्‍यूशन) और दुग्‍ध क्रांति (व्‍हाइट रिवॉल्‍यूशन) ले आता है. वह सिर्फ बैठकर क्रांति की बात नहीं करता. भूख के खिलाफ लड़ाई में मोर्चे पर तैनात अपने (जवानों) किसानों से कोई गैर-जिम्‍मेदार समाज ही मुंह मोड़ सकता है.

गांव के स्‍कूल में मास्‍टर और अस्‍पताल में डॉक्‍टर उसे भी चाहिए. आमदनी बढ़ाने और रोजगार के नए अवसर तलाशने का हक उसे भी है. गजेंद्र की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले यह भूल जाते हैं कि किसान समाधान मांग रहा है, समस्‍या तो उसे भी पता है. लाख टके का सवाल यह है कि किसान की किस्‍मत रबी से खरीफ के बीच कब तक झूलती रहेगी? भारत के किसानों की किस्‍मत कब बदलेगी? इन सवालों के जवाब के लिए फिर किसी गजेंद्र की मोत का इंतजार नहीं किया जा सकता.

आई नेक्‍स्‍ट में दिनांक 15 अप्रेल, 2015 को प्रकाशित
http://inextepaper.jagran.com/486528/INext-Kanpur/25-04-15#page/11/2

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