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अगस्त, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अलविदा ऑरकुट! अब हम नहीं मिलेंगे

ऑरकुट को भी यकीन नहीं हो रहा होगा कि महज दस बरस में उसका बोरिया बिस्‍तर सिमट गया . अफसोस तो उसे इस बात का भी होगा कि बहुतेरे लोगों को यह खबर ऑरकुट नहीं बल्‍कि उनकी फेसबुक या टि्वटर टाइमलाइन पर तैरती हुई मिली . कभी उसका भी जलवा हुआ करता था . वक्‍त के साथ स्‍कूल की स्‍क्रैपबुक कब ऑरकुट के स्‍क्रैप में बदली लोगों को पता ही नहीं चला . स्‍लो स्‍पीड वाले इंटरनेट पर चैटिंग से ऊबी जेनरेशन के लिए वह किसी अजूबे से कम नहीं था . अपनों की तलाश , परायों से बात और स्‍कूल के नए - पुराने दोस्‍तों के साथ गपशप का मौका लोगों को उसकी ओर खींच रहा था . उसे तो इल्‍म भी न रहा होगा कि कभी उसकी जिंदगी में 30 सितंबर , 2014 का दिन भी आएगा जब उसे इतिहास का हिस्‍सा बनकर रह जाना है . ऐसे में उसके इतिहास के पन्‍नों में समाने से पहले उन्‍हें पलटना जरूरी है . साल 2004 , सोशल नेटवर्किंग , हैशटैग , जैसे शब्‍दों का अभी लोगों की जुबान पर चढ़ना बाकी था . गूगल 2002 में लांच सोशल नेटवर्किंग सर्विस वेबसाइट फ्रेंडस्‍टर से मुकाबले के लिए कमर कस रहा था . इस बीच 2003 में लिंक्‍डइन और माईस्‍पेस भी ऑनलाइन सोशल नेटवर्किंग...

जरा, एक सेल्‍फी हो जाए

रिश्‍तों की शेल्‍फ लाइफ कम और शेल्‍फ पर रखी किताबों पर धूल ज्‍यादा हो गई है . दिल को थोड़ा सुकून मिले इसलिए सेल्‍फी लेने का मन कर रहा है . अपनी तस्‍वीर किसे अच्‍छी नहीं लगती . स्‍मार्टफोन , सोशल मीडिया और सेल्‍फी क्‍या जर्बदस्‍त कांबिनेशन है . यहां - वहां , जहां - तहां , गाहे - बगाहे अपनी तस्‍वीरें खींचकर सोशल मीडिया पर अपलोड करते जाना किसी ऑबसेशन से कम नहीं . कुछ लोग इसे सेल्‍फी रिवॉल्‍यूशन कहकर बुलाते हैं . रिवॉल्‍यूशनरी चे गुवेरा को अपना आदर्श बताने वाले एलेक्‍स चाकॉन तो एक कदम आगे निकल गए . उन्‍होंने 600 दिन में इंडिया समेत दुनिया के 36 देशों का सफर तय करने के बाद तीन मिनट का सेल्‍फी वीडियो बनाया है , जो इन दिनों वायरल हो रहा है और 60 लाख से ज्‍यादा व्‍यूज बटोर चुका है .   ताजमहल के सामने खड़े होकर पोज देते और भारतीय रेल में सफर करते एलेक्‍स की सेल्‍फी तो हिट हो गई लेकिन ईरान में मामला कुछ उल्‍टा हो गया . इरानियन पॉप सिंगर सईद शाइस्‍ता के गाने को गुनगुनाते और कार चलाते हुए सेल्‍फी वीडियो शूट करने के चक्‍कर में दो लड़कियां हॉस्‍पिटल पहुंच गईं . मजे की बात यह हॉस्‍पिटल ...

इन खुशियों का रंग गाढ़ा होता अगर…

हम खुश हैं. हैदराबाद में जन्‍मे सत्‍या नडेला महीने भर पहले ही दुनिया की दिग्‍गज सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के चेयरमैन बने हैं. हमारी खुशी तब और भी बढ़ गई जब पता चला कि जिस इंस्‍टेंट मैसेजिंग सर्विस व्‍हॉट्स एप को फेसबुक ने 19 बिलियन डॉलर में खरीदा है उसके पीछे भी कोई इंडियन ब्रेन है. आईआईटी दिल्‍ली के एल्‍यूमिनाई नीरज अरोड़ा जिन्‍हें कंपनी की बिजनेस स्‍ट्रैटेजी के पीछे का दिमाग माना जाता है. सिलिकन वैली में हिंदुस्‍तानी लगातार कामयाबी का रंग बिखेरते रहे हैं. पिछली होली के मौके पर गूगल ने चेन्‍नई में जन्‍मे सुंदर पिच्‍चै को अपने एंड्रायड डिवीजन की कमान सौंपी थी. 2013 की तीसरी तिमाही में दुनिया भर में जितने स्‍मार्टफोन बिके उनमें से 81 परसेंट इसी ऑपरेटिंग सिस्‍टम पर रन होते हैं. आईआईटी खड़गपुर का यह एल्‍यूमिनाई माइक्रोसॉफ्ट का सीईओ बनने की रेस में भी शामिल था.    आइए एक और नाम का जिक्र कर लेते हैं. साल 2013, अप्रेल का महीना रहा होगा टि्वटर को किसी ऐसे शख्‍स की तलाश थी जो उसकी बिजनेस स्‍ट्रैटेजी में रंग भर सके. हवा में गूगल के वाइस प्रेसीडेंट नील मोहन का नाम तैर रहा था. ऐस...

जिंदगी में बदलाव की ‘कोडैक मोमेंट’

किस्‍सा पुराना है लेकिन मजेदार है . आपने कोडैक का नाम तो सुना ही होगा . वाकया 1975 का है . कंपनी के इंजीनियर स्‍टीव साशन ने दुनिया का पहला डिजिटल कैमरा बनाया था . जब वह उसे लेकर मैनेजमेंट के पास गए तो उन्‍हें सुनने को मिला , ‘ बढ़िया है , लेकिन किसी को बताना मत ’. अमरीका के फोटोग्राफी फिल्‍म के 89 परसेंट मार्केट पर काबिज कंपनी को फिल्‍मलेस फोटोग्राफी का यह आइडिया कुछ जंचा नहीं .    यह वह दौर था जब कोडैक मोमेंट डिक्‍शनरी ही नहीं लोगों की जिंदगी का हिस्‍सा हुआ करती थी . 1981 में कंपनी की ओर से कराई गई स्‍टडी में कहा गया था कि उसके पास खुद को बदलने के लिए 10 साल का वक्‍त है . समय का पहिया घूमा जनवरी 2012 में कंपनी को दीवालिया होने की घोषणा करनी पड़ी . अंग्रेजी में कहावत है , टाइम एंड टाइड वेट फॉर नन , समय और लहरें किसी का इंतजार नहीं करती . उस समय कंपनी के सीईओ एंटोनियो एम पेरेज ने कहा , ‘ हमें अब खुद को बदलना ही होगा ’. इस सबकी वजह बने डिजिटल कैमरे . कहानी जहां से शुरू हुई थी वहीं पहुंच गई थी . कंपनी को इस मोमेंट का इंतजार तो कभी नहीं रहा होगा . हमारी जिंदगी में...

डिजिटल डिवाइड के इस पार...

डिजिटल होती दुनिया में भी दो किनारे हैं। एक डिजिटल डिवाइड जो हमारे दिल और दिमाग के बीच है। दोनों एक-दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते। दिल डिजिटल होना चाहता है, लेकिन दिमाग उसे मुश्किल कहकर खारिज कर देता है, भले ही डिजिटल रिवॉल्यूशन दरवाजे पर दस्तक देकर लौट जाए। डिजिटल माइंडसेट की बात इंडिया की सिलिकॉन वैली, बंगलुरु के बाहर कहीं नहीं होती। चीजों को आसान बनाने का काम करने वाली टेक्नोलॉजी आज भी ज़्यादातर लोगों को मुश्किल नज़र आती है। इंदौर में एक चायवाला हुआ करता था। मोबाइल फ़ोन नया-नया आया था। कॉल करने ही नहीं, बल्कि रिसीव करने के भी पैसे देने पड़ते थे। उसे चाय का ऑर्डर लेने के लिए भीड़ भरे व्यस्त बाज़ार में लड़का भेजना पड़ता था। उसे एक आइडिया आया, उसने मोबाइल फ़ोन रखना शुरू किया। चाय का ऑर्डर अब उसके सेकंड हैंड मोबाइल हैंडसेट पर लिया जाता था। उसके कस्टमर अब लगातार उसके टच में रहते थे। उन्हें इस सर्विस के लिए कुछ एक्स्ट्रा खर्च करने से भी परहेज नहीं था। उसका बिज़नेस पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया। वह चायवाला कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के शुरुआती अडॉप्टर्स में से एक था। कुछ ऐसा ही जीपीएस (ग्लो...