इस साल नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा के साथ ही अरब वसंत की यादें ताजा होना लाजिमी है. पांच बरस पहले फलों का ठेला लगाने वाले नौजवान मोहम्मद बुआजिजी के आत्मदाह के बाद जैसमिन रिवॉल्यूशन की शुरुआत हुई थी. जिसके कारण ट्यूनीशिया में बेन अली को 23 साल बाद सत्ता से बेदखल होना पड़ा था. देखते ही देखते अरब जगत के कई और देशों में आंदोलन शुरू हो गए. दुनिया इंटरनेट व सोशल मीडिया की लोगों को जोड़ने की ताकत से भी इन्हीं के दौरान रूबरू हुई थी.
जैसमिन रिवॉल्यूशन की गूंज इजिप्ट में तहरीर स्क्वायर से लेकर यमन की राजधानी सना तक सुनी जा सकती थी. महंगाई, भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ अरब देशों की जनता सड़कों पर थी. ट्यूनीशिया के बाद ईजिप्ट, लीबिया और यमन में भी तख्तापलट हुआ. बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, कुवैत और मोरक्को तक क्रांति का असर दिखाई दिया. भारत में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के बीज भी कहीं न कहीं उसी अरब वसंत में छिपे हुए थे. निर्भया रेप कांड के बाद भी देश ने युवाओं को मुखर होकर विरोध जताते देखा. आज भले ही अरब जगत में इस्लामिक स्टेट और उसके कारनामों की गूंज है. पांच साल पहले तक दुनिया उसकी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही थी.
बहरहाल क्रांति के बाद इजिप्ट, यमन और लीबिया में शासन बदला लेकिन व्यवस्था नहीं बदली. आज न सिर्फ वहां अशांति है बल्कि सीरिया से लेकर इराक तक हिंसा का दौर जारी है. सीरियाई शरणार्थी संकट उसी की उपज है.
इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार लोगों को एक बार फिर ट्यूनीशिया की ओर देखने को मजबूर करेगा. जिसे जैसमिन रिवॉल्यूशन की यादें धुंधली पड़ने के साथ लोगों ने भुला दिया था. क्रांति और उसके बाद व्यवस्था परिवर्तन की राह आसान नहीं होती. यह बात वहां की जनता ने बखूबी समझी है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी उसके अनुभवों से सीख सकता है. जहां राजनेताओं का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार युवाओं में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान में कमी लाता है.
इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार ट्यूनीशिया की संस्था नेशनल डायलॉग क्वार्टेट को मिला है. जिसने देश में 2011 के जैसमिन रिवॉल्यूशन के बाद बहुलतावादी लोकतंत्र की स्थापना में अहम भूमिका निभाई है. इसका गठन इसी उद्देश्य को लेकर 2013 में किया गया था. यह वह दौर था जब देश क्रांति के बाद दोराहे पर था. भटकाव के दौर का अंत होता नहीं नजर आ रहा था. उनके पास अरब के किसी देश में क्रांति के बाद व्यवस्था परिवर्तन का कोई सफल उदाहरण भी नहीं था जिसे अपनाया जा सके. ऐसे समय में ट्यूनीशिया जनरल लेबर यूनियन, ट्यूनीशिया कन्फेडेरेशन ऑफ़ इंडस्ट्री, ट्रेड एंड हैंडीक्राफ्ट, ट्यूनीशिया ह्यूमन राइट लीग और ट्यूनीशियन ऑर्डर ऑफ़ लॉयर्स ने साथ आकर इस चुनौती को स्वीकार किया था.
आज बाकी के अरब देश जहां कभी क्रांति के फूल खिले थे हिंसा के लंबे दौर से गुजर रहे हैं वहीं ट्यूनीशिया में लोकतंत्र फलता फूलता नजर आ रहा. एक आम आदमी मोहम्मद बुआजिजी के आत्मदाह से उपजे लोगों के गुस्से को दिशा मिली है.
यह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के लिए नसीहत भी है. आक्रोश से तख्तापलट होते हैं, व्यवस्था बदलने के लिए कहीं ज्यादा लंबी लड़ाई और तैयारी की जरूरत होती है. जैसे ही हम अपने पड़ोसी मुल्क नेपाल पर नजर डालेंगे यह बात आसानी से समझ आएगी.
भारत जो कि एक बहुलतावादी समाज है, उसके लिए भी ट्यूनीशिया का अनुभव मायने रखता है. दादरी जैसी घटनाएं और उसके बाद गैर जिम्मेदारी भरी प्रतिक्रियाएं इसकी याद दिलाती हैं. हमारे पास जो है अगर हमने उसकी कद्र नहीं की तो मुश्किल में पड़ते देर नहीं लगेगी. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को याद दिलाना पड़ रहा है कि विविधता हमारी ताकत है और इसे किसी हाल में हम गंवा नहीं सकते. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपील करनी पड़ी कि नेताओं के बयानों पर ध्यान मत दीजिए अगर आपको सुनना है और अमल करना है तो प्रेसीडेंट की बात पर करें. बतौर समाज हम जिस दिशा में जा रहे हैं उस पर फिर से गौर करने की जरूरत है. लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों की रखवाली तभी हो सकेगी.
जैसमिन रिवॉल्यूशन की गूंज इजिप्ट में तहरीर स्क्वायर से लेकर यमन की राजधानी सना तक सुनी जा सकती थी. महंगाई, भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ अरब देशों की जनता सड़कों पर थी. ट्यूनीशिया के बाद ईजिप्ट, लीबिया और यमन में भी तख्तापलट हुआ. बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, कुवैत और मोरक्को तक क्रांति का असर दिखाई दिया. भारत में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के बीज भी कहीं न कहीं उसी अरब वसंत में छिपे हुए थे. निर्भया रेप कांड के बाद भी देश ने युवाओं को मुखर होकर विरोध जताते देखा. आज भले ही अरब जगत में इस्लामिक स्टेट और उसके कारनामों की गूंज है. पांच साल पहले तक दुनिया उसकी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही थी.
बहरहाल क्रांति के बाद इजिप्ट, यमन और लीबिया में शासन बदला लेकिन व्यवस्था नहीं बदली. आज न सिर्फ वहां अशांति है बल्कि सीरिया से लेकर इराक तक हिंसा का दौर जारी है. सीरियाई शरणार्थी संकट उसी की उपज है.
इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार लोगों को एक बार फिर ट्यूनीशिया की ओर देखने को मजबूर करेगा. जिसे जैसमिन रिवॉल्यूशन की यादें धुंधली पड़ने के साथ लोगों ने भुला दिया था. क्रांति और उसके बाद व्यवस्था परिवर्तन की राह आसान नहीं होती. यह बात वहां की जनता ने बखूबी समझी है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी उसके अनुभवों से सीख सकता है. जहां राजनेताओं का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार युवाओं में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान में कमी लाता है.
इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार ट्यूनीशिया की संस्था नेशनल डायलॉग क्वार्टेट को मिला है. जिसने देश में 2011 के जैसमिन रिवॉल्यूशन के बाद बहुलतावादी लोकतंत्र की स्थापना में अहम भूमिका निभाई है. इसका गठन इसी उद्देश्य को लेकर 2013 में किया गया था. यह वह दौर था जब देश क्रांति के बाद दोराहे पर था. भटकाव के दौर का अंत होता नहीं नजर आ रहा था. उनके पास अरब के किसी देश में क्रांति के बाद व्यवस्था परिवर्तन का कोई सफल उदाहरण भी नहीं था जिसे अपनाया जा सके. ऐसे समय में ट्यूनीशिया जनरल लेबर यूनियन, ट्यूनीशिया कन्फेडेरेशन ऑफ़ इंडस्ट्री, ट्रेड एंड हैंडीक्राफ्ट, ट्यूनीशिया ह्यूमन राइट लीग और ट्यूनीशियन ऑर्डर ऑफ़ लॉयर्स ने साथ आकर इस चुनौती को स्वीकार किया था.
आज बाकी के अरब देश जहां कभी क्रांति के फूल खिले थे हिंसा के लंबे दौर से गुजर रहे हैं वहीं ट्यूनीशिया में लोकतंत्र फलता फूलता नजर आ रहा. एक आम आदमी मोहम्मद बुआजिजी के आत्मदाह से उपजे लोगों के गुस्से को दिशा मिली है.
यह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के लिए नसीहत भी है. आक्रोश से तख्तापलट होते हैं, व्यवस्था बदलने के लिए कहीं ज्यादा लंबी लड़ाई और तैयारी की जरूरत होती है. जैसे ही हम अपने पड़ोसी मुल्क नेपाल पर नजर डालेंगे यह बात आसानी से समझ आएगी.
भारत जो कि एक बहुलतावादी समाज है, उसके लिए भी ट्यूनीशिया का अनुभव मायने रखता है. दादरी जैसी घटनाएं और उसके बाद गैर जिम्मेदारी भरी प्रतिक्रियाएं इसकी याद दिलाती हैं. हमारे पास जो है अगर हमने उसकी कद्र नहीं की तो मुश्किल में पड़ते देर नहीं लगेगी. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को याद दिलाना पड़ रहा है कि विविधता हमारी ताकत है और इसे किसी हाल में हम गंवा नहीं सकते. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपील करनी पड़ी कि नेताओं के बयानों पर ध्यान मत दीजिए अगर आपको सुनना है और अमल करना है तो प्रेसीडेंट की बात पर करें. बतौर समाज हम जिस दिशा में जा रहे हैं उस पर फिर से गौर करने की जरूरत है. लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों की रखवाली तभी हो सकेगी.
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